Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 280
________________ अनेकान्त 58/3-4 145 सुखे जीवे सुखी लोकः सुभगो राजपूजितः। विजातारिः कुलाध्यक्षो गुरुभक्तश्च जायते।। लग्नचन्द्रिका अर्थ सुख अर्थात् लग्न से चतुर्थ स्थान में बृहस्पति होवे तो पूजक (प्रतिष्ठाकारक) सुखी राजा से मान्य, शत्रुओं को जीतने वाला, कुलशिरोमणि तथा गुरु का भक्त होता है। विशेष के लिए बृहज्जतक 19वां अध्याय देखो। 3. मुखं चारुभाष मनीषापि चार्वी मुखं चारु चारूणि वासांसि तस्य । वाराही संहिता भार्गवे सहजे जातो धनधान्यसुतान्वितः। नीरोगी राजमान्यश्च प्रतापी चापि जायते।। -लग्नचन्द्रिका अर्थ शुक्र के तीसरे स्थान मे रहने से पूजक धन-धान्य, सन्तान आदि सुखों से युक्त होता है। तथा निरोगी, राजा से मान्य और प्रतापी होता है। बृहज्जातक मे भी इसी आशय के कई श्लोक हैं जिनका तात्पर्य यही है जो ऊपर लिया गया है। 4. न नागोऽथ सिंहो मुजो विक्रमेण प्रयातीह सिंहीसुते तत्समत्वम् । विद्याधर्मधनैर्युक्तो बहुभाषी च भाग्यवान् ।। इत्यादि अर्थ जिस प्रतिष्ठाकारक के तृतीय स्थान में राहु होने से उसके विद्या, धर्म धन और भाग्य उसी समय से वृद्धि को प्राप्त होते है। वह उत्तम वक्ता होता है। 5. एकोऽपि जीवो बलवांस्तनुस्थः सितोऽपि सौम्योऽप्यथवा बली चेत् । दोषानशेषान्विनिहंति सद्यः । स्कंदो यथा तारकदैत्यवर्गम्।। गुणाधिकतरे लग्ने दोषेऽत्यल्पतरे यदि। सुराणां स्थापनं तत्र कर्तुरिष्टार्थसिद्धिदम् ।। भावार्थ इस लग्न में गुण अधिक हैं और दोष बहुत कम हैं अर्थात् नहीं के बराबर हैं। अतएव यह लग्न सम्पूर्ण अरिष्टो को नाश करने वाला और श्री चामुण्डराय के लिए सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थों को देनेवाला सिद्ध हुआ होगा।

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