Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 279
________________ 144 अनेकान्त 58/3-4 इस चन्द्रकुण्डली में 'डिम्भाख्य' योग है। उसका फल अनेक उपद्रवों से रक्षा करना तथा प्रतिष्ठा को बढ़ाना है। कई अन्य योग भी हैं किन्तु विशेष महत्वपूर्ण न होने से नाम नहीं दिये हैं। प्रतिष्ठा के समय उपस्थित लोगों के लिए भी इसका उत्तम फल रहा होगा। इस मुहूर्त में बाण पंचक अर्थात् रोग, चोर, अग्नि, राज, मृत्यु इनमें से कोई भी बाण नहीं है। अतः उपस्थित सज्जनों को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ होगा। सबको अपार सुख एवं शान्ति मिली होगी। इन लग्न, नवांश, षड्वर्गादिक में ज्योतिष-शास्त्र की दृष्टि से कोई भी दोष नहीं है प्रत्युत अनेक महत्त्वपूर्ण गुण मौजूद हैं। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में लोग मुहूर्त, लग्नादिक के शुभाशुभ का बहुत विचार करते थे। परन्तु आज कल की प्रतिष्ठाओं में मनचाहा लग्न तथा मुहूर्त ले लेते हैं जिससे अनेक उपद्रवों का सामना करना पड़ता है। ज्योतिष-शास्त्र का फल असत्य नहीं कहा जा सकता; क्योंकि काल का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पड़ता है और काल की निष्पत्ति ज्योतिष-देवों से ही होती है। इसलिए ज्योतिष-शास्त्र का फल गणितागत बिल्कुल सत्य है। अतएव प्रत्येक प्रतिष्ठा में पञ्चाङ्ग-शुद्धि के अतिरिक्त लग्न, नवांश, षड्वर्गादिक का भी सूक्ष्म विचार करना अत्यन्त जरूरी है। संदर्भः 1. “बुधो मूर्तिगो मार्जयेदन्यरिष्टं गरिष्ठा धियो वैखरीवृत्तिभाजः। जना दिव्यचामीकरीभूतदेहश्चिकित्साविदो दुश्चिकित्स्या भविन्त ।।" "लग्ने स्थिताः जीवेन्दुभार्गवबुधाः सुखकान्तिदाः स्युः ।" 2. गृहद्वारतः श्रूयतेवाजिढेषा । द्विजोच्चारितो वेदघोषोऽपि तद्वत् प्रतिस्पर्धितः कुर्वते पारिचर्य चतुर्ये गुरौ तप्तमन्तर्गतञ्च ।। चमत्कारचिन्तामणि

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