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अनकान्त 58/3-4
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कर समाधि ग्रहण कर ली। गुरु आज्ञापूर्वक चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र) ने कान्तार चर्या की। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने चेतन का ध्यान करते हुए धर्मध्यान पूर्वक प्राण त्याग किये और स्वर्ग सिधारे। कुछ कथाकारों द्वारा लिखा गया है कि दुष्काल मगध में पड़ा और वहाँ के राजा चन्द्रगुप्त को दीक्षा देकर और अपने साथ लेकर दक्षिण देश को गये। स्वयं तो मुनि चन्द्रगुप्त के साथ एक गुहाटवी में रुक गये और विशाखाचार्य के नेतृत्व में संघ, चोल, तमिल, पुन्नाट देश की ओर भेज दिया।
उक्त कथानकों एवं शिलालेखों के आधार पर श्रुतकेवली भद्रबाहु के भाद्रपद देश, दक्षिणाटवी, शुक्लसर या शुक्लतीर्थ आदि समाधि स्थल के नाम प्राप्त होते हैं, किन्तु शिलालेखीय प्रमाण यथार्थ मालूम होते हैं। अतः विचार करने पर उक्त नाम श्रवणबेलगोल के ही प्रतीत होते हैं। शब्द भेद होने पर भी अर्थभेद नहीं होना चाहिए, ऐसा लगता है। ___ समाधिमरण जीवन की अन्तिम बेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है। इसी उद्देश्य से श्रुतकेवली भद्रबाहु ने शरीर की क्षीणता और अपनी अल्पायु निमित्त ज्ञान से जानकर समाधि ग्रहण की थी। प्रत्येक साधक व्रत धारण का फल-समाधिमरण यह भली-भांति जानता है। इसलिए समाधिमरण की पवित्र भावना/याचना करता है- दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहिमरणं ... । अर्थात् दुःखों का क्षय हो, कर्मो का क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो! साधक को मृत्यु का भय नहीं रहता, वह तो प्रसन्नता पूर्वक ज्ञान वैराग्य भावना तत्पर होकर मृत्यु को महोत्सव मानता है। साधक समाधि के लिए अरिहन्त सिद्ध की प्रतिमाओं से युक्त पर्वत आदि योग्य स्थान का चयन करते हैं। इसीलिए श्रुतकेवली भद्रबाहु ने सर्वदृष्टि से उचित चन्द्रगिरि (कटवप्र) को समाधि के लिए चुना। भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की तपस्या और सल्लेखना विधि के द्वारा इस छोटी पहाड़ी (चिक्कवेट्ट) पर शरीर त्याग से यह स्थल तीर्थ बन गया। श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त का अनुकरण करते हुए समाधिमरण के लिए पवित्र स्थान के