Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 259
________________ 124 अनेकान्त 58/3-4 थोड़े ही दूर जाकर प्राकृतिक संकेतों के आधार पर उन्हें अपना अन्तिम समय सन्निकट प्रतीत हुआ। उन्होंने वहीं रुक कर समाधि ग्रहण कर ली। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नेपाल में भद्रबाहु की समाधि मानी जाती है। वहाँ लिखा है कि जैन शासन को द्वितीय शताब्दी मध्यकाल में दुष्काल के भयंकर वात्याचक्र से जूझना पड़ा। उचित शिक्षा के अभाव में अनेक श्रुत सम्पन्न मुनि काल-कवलित हो गये। भद्रबाहु के अतिरिक्त कोई भी मुनि चौदह पूर्व का ज्ञाता नही बचा था। वे उस समय नेपाल की पहाड़ियों में महाप्रयाण ध्यान की साधना कर रहे थे। सघ को इससे गम्भीर चिन्ता हुई। आगमनिधि की सुरक्षा के लिए श्रमण सघाटक नेपाल पहुँचा। वहाँ संघ ने निवेदन किया कि आप मुनिजनों को दृष्टिवाद की ज्ञानराशि से लाभान्वित करें। रामचन्द्र मुमुक्षु रचित पुण्यासव कथाकोष के अन्तर्गत भद्रबाहुचरित में वर्णित है कि दक्षिण की एक गुफा में आकाशवाणी से अपनी अल्पाय सुनकर भद्रबाहु ने विशाखाचार्य को ससंघ चोलदेश भेज दिया और स्वयं अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ वहीं रुक गये और वही की गुफा में आत्मस्थ होकर रहने लगे। महाकवि रइधू ने लिखा है कि जब भद्रबाह मध्यरात्रि को ध्यान में स्थित थे तभी वाणी उत्पन्न हुई कि तुम्हारी निषिद्धिका (समाधिभूमि) यहाँ ही होगी।23 इस आकाशवाणी को सुनकर श्री भद्रबाह स्वामी ने जान लिया कि- समाधिमरण/सल्लेखना धारण करने का समय है। साधक की दीर्घकालीन साधना का फल समाधिमरण है। दीर्घकाल से व्रताचरण करते हुए भव्य जीव की सफलता समाधिमरण से होती है। ___ जब जाना कि “अपने पवित्र मुनिपद की आयु अब थोड़ी ही रह गयी है" तब उन्होंने श्री विशाखाचार्य के नेतृत्व संघ को आगे भेज कर उसी पर्वत पर समाधि ग्रहण कर ली। उनकी सेवा हेत चन्द्रगप्त वहीं रुक गये। भद्रबाहु ने शरीर अशक्तता के कारण चतुर्विध प्रकार के आहार का त्याग

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