________________
अनेकान्त 58/3-4
इसके अतिरिक्त गाँव-गॉव में पाठशालाएँ, कुएँ, धर्मशालाएँ आदि की योजना कराती थीं और दीन दुःखियों की सेवा करती थीं। यही कारण था कि वे दान चिन्तामणि अत्तिमब्बे कहलायीं । उन्हें कर्नाटक माता भी कहा जाता था । उनके स्पर्श मात्र से रोगी बालक निरोग हो जाते थे। ऐसे अतिशयों के कारण उन्हें भक्तशिरोमणी, संस्कृति मुकुटमणि कहकर आदर किया जाता था । उन्होंने अपने जीवनकाल में जैनधर्म का बहुत प्रचार-प्रसार किया ।
('जैन बद्री के बाहुबली' से साभार )
114
त्यागाय श्रेय से वित्तमवित्तः संचिनोतियः । स्वशरीरं स पङ्केन, स्नास्यामीति विलिम्पति ।।
• इष्टोपदेश, 16
जो निर्धन मनुष्य दान करने तथा अपने सुख (हित) के लिये धन को एकत्रित करता है वह मनुष्य मैं स्नान करूँगा इस विचार से अपने शरीर को कीचड से लीपता है ।