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अनेकान्त 58/3-4
राष्ट्रीय एकता एवं विश्वबन्धुत्व के अनुपम उपमेय हैं।
मैसूर राज्यवंश आरम्भ से ही भगवान् गोम्मटेश की असीम भक्ति के लिए विख्यात रहा है। इस तीर्थ की प्रबन्ध व्यवस्था एवं विकास में मैसूर नरेशों, मन्त्रियों, राज्य अधिकारियों एवं जनसाधारण का विशिष्ट सहयोग रहा है | श्रवणबेलगोल कं मन्दिरो पर आई भयंकर विपदा को अनुभव करते हुए मैसूर नरेश चामराज ओडेयर ने बेलगोल के मन्दिरों की जमीन को ऋण से मुक्त कराया था। एक विशेष आज्ञा द्वारा उन्होंने मन्दिर को रहन करने व कराने का निषेध किया था । श्रवणबेलगोल के जैन मठ के परम्परागत गुरु चारुकीर्ति जो तेलगु सामन्त के त्रास के कारण अन्य किसी स्थान पर सुरक्षा की दृष्टि से चले गये थे । मैसूर नरेश ने उन्हें ससम्मान वापिस बुलाया और पुनः मठ में प्रतिष्ठित करके श्रवणबेलगोल की ऐतिहासिक परम्परा को प्राणवान् बनाया। जैन शिलालेख संग्रह मे संग्रहित अभिलेख 84 (250), 140 ( 352 ), 444 (365), 83 ( 246 ), 433 (353), 134 (354) मैसूर राज्यवश की गोम्मटस्वामी में अप्रतिम भक्ति के द्योतक हैं। मैसूर राज्यवंश एव उसके प्रभावशाली जैनेतर पदाधिकारियों की भगवान् गोम्मटेश के चरणों में अटूट आस्था का विवरण देते हुए श्वेताम्बर मुनि श्री शील विजय जी ने अपनी दक्षिण भारत की यात्रा ( चि. सं. 1731-32 ) में लिखा है
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"मैसूर का राजा देवराय भोज सरीखा दानी है और मद्य-मांस से दूर रहने वाला है । उसकी आमदनी 65 लाख की है । जिसमें से 18 लाख धर्म कार्य में खर्च होता है । यहाँ के श्रावक बहुत धनी, दानी और दयापालक हैं। राजा के ब्राह्मण मंत्री विशालाक्ष ( वेलान्दुर पंडित) विद्या, विनय और विवेकयुक्त हैं । जैन धर्म का उन्हें पूरा अभ्यास है वे जिनागमों की तीन बार पूजा करते हैं, नित्य एकाशन करते हैं और भोजन में केवल 12 वस्तुएँ लेते हैं । प्रतिवर्ष माघ की पूनों को गोम्मटस्वामी का एक सौ आठ कलशों से पंचामृत अभिषेक कराते हैं। बड़ी भारी रथ यात्रा होती है ।" ( नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य का इतिहास, पृ. 556 ) 1