________________
अनेकान्त 58/3-4
और चोल राज्यों में उनका प्रसार हो चुका होगा तभी विशाल मुनि संघ को शान्तिपूर्ण चर्या हेतु आचार्य वहां ले गये।
जैन मुनियों का दक्षिण भारतवासियों पर प्रभाव
जैन-मुनियों की सरल-सादी जीवनचर्या, विनम्र स्वभाव, निष्कपट व्यवहार और नैतिक शिक्षाओं ने दक्षिण की सभ्य विद्याधर जाति को मोह लिया। साधुओं ने भी घनिष्टता बढ़ाने के लिये स्थानीय बोलियों और भाषाओं को सीखा और उनमें साहित्य सृजन किया। दक्षिण भारत में जैन धर्म को जनसम्मान और राज्याश्रय दोनों ही प्राप्त रहे और ईस्वी सन् की प्रथम कई शताब्दियों तक जैन धर्मानुयायी दक्षिण भारतीय समाज में अग्रणी पंक्ति में बने रहे। तदनन्तर शैव, वैष्णव और वीर-शैव सम्प्रदायों के कट्टर विद्वेष और राज्याश्रय समाप्त हो जाने के कारण उनकी स्थिति में ह्रास हुआ। तदपि दक्षिण भारतीय समाज पर जैन धर्म और उसके अनुयायियों का प्रभाव अभी बना हुआ है। आज भी दक्षिण में वर्णमाला सीखने के पूर्व विद्यार्थियों को ‘ओनामासीधं (ओम् नमः सिद्धेभ्यः) सिखाया जाता है जो राष्ट्रकूट काल में जैन गुरुओं द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में डाली गई अपनी गहरी छाप का परिणाम है। तमिल समाज के उच्च वर्गो में जैन संस्कार अभी भी विद्यमान हैं। शैव धर्म के पुनरुत्थान और राजनीतिक कारणों से भारी संख्या में जैनों का धर्मान्तरण हुआ, किन्तु धर्म परिवर्तित लोगों ने अपने जैन रीति-रिवाजों को अपनाये रखा। उनके आचार वैसे ही बने रहे। तमिल शब्द 'शैवम' विशुद्ध शाकाहारी के लिये प्रयुक्त होता है
और वहां के ब्राह्मण शुद्ध शाकाहारी होते हैं जो स्पष्टतया जैन धर्म का प्रभाव है।
प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के साहित्य भण्डार की अभिवृद्धि में दक्षिणात्य जैनाचार्यों का योगदान
प्रथम शती ईस्वी से ही दक्षिण भारत में अनेक प्रकाण्ड विद्वान् और