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जैन संस्कृति एवं साहित्य के विकास में दक्षिण भारत का योगदान
-रमा दान्त जैन गोदावरी नदी के दक्षिण में अवस्थित आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्णाटक, केरल तथा महाराष्ट्र का वह भूभाग जो कभी गंगों, चालुक्यों
और राष्ट्रकूटों के आधिपत्य में रहा, सामान्यतया दक्षिण भारत माना जाता है। यहां की मुख्य भाषाएं तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम हैं।
यद्यपि वर्तमान काल के चौबीसों तीर्थकर उत्तर भारत में ही हुए, इतिहास काल के प्रारम्भ से ही दक्षिण भारत जैन धर्म के अनुयायियों से युक्त रहा और कई शताब्दियों तक जैन धर्म का एक सुदृढ़ गढ़ बना रहा। जेन संस्कृति और साहित्य के संवर्द्धन में दक्षिण भारत का विशिष्ट योगदान रहा है। वर्ष 2001 की जनगणनानुसार दक्षिण के चार राज्यों में 5,43,344 जैनधर्मानुयायी बतते हैं सबसे अधिक 4,12,659 कर्णाटक में हैं।
दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रवेश ___ हरिषेण के वृहत्कथाकोश, रत्ननन्दी के भद्रबाहुचरित, चिदानन्द कवि के मुनिवंशाभ्युदय और पं. देवचन्द्र की राजावलिकथे में निबद्ध जन अनुश्रुति के अनुसार उत्तर भारत में 12 वर्षीय भीषण दुर्भिक्ष पड़ने की आशंका से अन्तिम श्रुतकेवलि भद्रबाहु ने जैन मुनियों के विशाल संघ के साथ दक्षिण की ओर विहार किया था। भद्रबाह श्रवणबेलगोल में कटवप्र पहाड़ी पर रुक गये और अपने शिष्य विशाखाचार्य को अन्य मुनियों के साथ पाण्ड्य और चोल राज्यों में जाने का आदेश दिया। उनकी समाधि वीर निर्वाण तंवत् 162 (ई.पू. 365) में हुई थी। किन्तु यह जैन धर्म और उसके अनुयायियों के दक्षिण भारत में प्रवेश का प्रथम चरण नहीं रहा होगा, अपितु उसके पूर्व ही कर्णाटक और तमिलनाडु के पाण्ड्य