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अनेकान्त 58/3-4
का स्थान सर्वोपरि है; ये जैन कृतियां मानी जाती हैं। कणिमेदैयार की तिणैमाले और एलादि, विलम्बिनाथर की नान्माणिक्कडिगै और माक्कारियाशन की श्रीपंचमूलम् भी 18 नीति काव्यों में समाहित जैन कृतियां हैं। तमिल के प्रसिद्ध पंच महाकाव्यों में से तीन - शिलप्पदिकारम्, वलयापति और जीवक चिन्तामणि तथा पांचों उप काव्य - नीलकेशी, चूड़ामणि, यशोधर काव्यम्, उदयणन कदै और नागकुमार काव्यम् भी जैन कृतियां हैं।
उपर्युक्त के अतिरिक्त जैन रचनाकारों ने स्तोत्र, उक्ति संग्रह, छन्द शास्त्र, गणित, ज्योतिष आदि पर भी गम्भीर रचनाएं एवं टीकायें लिखकर तमिल साहित्य की अभिवृद्धि की।
द्वितीय शती ईस्वी से प्रचलन प्राप्त कन्नड़ भाषा का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम कृत कविराजमार्ग है। तदनन्तर दसवीं शती ईस्वी से सत्रहवीं शती ईस्वी तक कन्नड़ भाषा में जैनधर्मानुयायियों द्वारा विविध विषयक विपुल साहित्य की रचना की गई। दसवीं शती ईस्वी में किन्हीं कोट्याचार्य ने गद्य में वड्डाराधने की और महाकवि आदि-पम्प ने आदिपुराण की रचना की थी। सत्रहवीं शती ईस्वी तक कन्नड़ में जैन कवियों द्वारा 19 पुराण रचे गये। इनके अतिरिक्त लीलावती, हरिवंशाभ्युदय, और जीव संबोधने नामक काव्य; मालतीमाधव नामक नाटक; काव्यालोकन नामक अलंकार ग्रन्थ; छन्दोम्बुधि नामक छन्द शास्त्र; भाषाभूषण और शब्द स्मृति नामक व्याकरण ग्रन्थ; तथा जातकतिलक एवं नरपिंगलि नामक ज्योतिष ग्रन्थों की रचना हुई। राजा दित्य ने गणित पर 6 ग्रन्थ रचे। गोवैद्य, कल्याणकारक और बालगृहचिकित्सा नामक वैद्यक ग्रन्थों का तथा जैन धर्म एवं दर्शन विषयक समय परीक्षे, धर्मामृत, आचारसार, प्रामृतत्रय और तत्वार्थ परमात्म प्रकाशिका का प्रणयन हुआ। चामुण्डराय ने नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गोम्मटसार पर वीर मार्तण्डी नाम्नी कन्नड़ टीका रची। षटपदि ग्रन्थ, सांगत्य ग्रन्थ, शतक ग्रन्थ, और सूपशास्त्र सदृश लोकोपकारी ग्रन्थों का भी प्रणयन हुआ।