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अनेकान्त 58/3-4
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एक पति को छोड़कर अन्य पति के पास चला जाता है। जिसके बल का सहारा मनुष्यों के जीवन का आलम्बन है ऐसा यह आयुरूपी खम्भा कालरूपी दुष्ट हाथी के द्वारा जबरदस्ती उखाड़ दिया जाता है। यह शरीर का बल हाथी के कान के समान चंचल है और यह जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी झोपड़ा रोगरूपी चूहों के द्वारा नष्ट किया हुआ है। इस प्रकार यह राज्यादि सब विनश्वर हैं। फिर भी, मोह के उदय से जिसकी चेतना नष्ट हो गयी है ऐसा भरत इन्हें नित्य मानता है यह कितने दुःख की बात है?
चिन्तन की इसी प्रक्रिया में उन्होंने राज्य के त्याग का निर्णय ले लिया। अपने निर्णय से सम्राट् भरत को अवगत कराते हुए उन्होंने कहा
देव मज्झु खमभाउ करेज्जसु। जं पडिकूलिउ तं म यसेन्जसु । अप्पउ लच्छिविलासें रंजहि। लइ महि तुहुँ जि णराहिव मुंजहि। णहणिवडियणीलुप्पलविहिहि। हउं पुणु सरणु जामि परमेट्ठिहि।
(महापुराण,सन्धि 18/2) अर्थात् हे देव! मुझ पर क्षमाभाव कीजिए और जो मैंने प्रतिकूल आचरण किया है उस पर क्रुद्ध मत होइए। अपने को लक्ष्मीविलास से रंजित कीजिए। यह धरती आप ही लें, और इसका भोग करें। मैं, जिन पर आकाश से नीलकमलों की वृष्टि हुई है, ऐसे परमेष्ठी आदि-नाथ की शरण में जाता हूं।
अनुज के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी से भरत के सन्तप्त मन को शान्ति मिली। बाहुबली के विनम्र एवं शालीन व्यवहार को देखकर सम्राट् भरत विस्मयमुग्ध हो गये और उनके उदात्त चरित्र का गुणगान करते हुए कहने लगेपइं जिह तेयवंतु ण दिवायरु। णउ गंभीरु होइ रयणायरु। पई दुजसकलंकु पक्खालिउ। णाहिणरिंदर्वसु उज्जालिउ। पुरिसरयणु तुई जगि एक्कल्लउ। जेण कयउ महु बलु वेयल्लउ। को समत्यु उवसमु पडिवज्जइ। जगि जसढक्क कासु किर वज्जइ। पई मुएवि तिहुयणि