________________
82
अनेकान्त 58/3-4
आचार्य अजितसेन के निकट तीन दिन तक उपवास रखकर समाधिमग्ण किया था।
बंकापुर के सांस्कृतिक केन्द्र की गतिविधियों का नियमन आचार्य अजितसेन के यशस्वी मार्गदर्शन में होता था। उनके अगाध पांडित्य के प्रति दक्षिण भारत के राज्यवंशों में विशेष सम्मान भाव था। गगवशीय राजा मारसिंह, राजा राचमल्ल (चतुर्थ), सेनापति चामुण्डराय एवं महाकवि रन्न उनके प्रमुख शिष्य थे। आचार्य अजितसेन की प्रेरणा से स्थापित बंकापुर के सांस्कृतिक केन्द्र में महापुराण के महातपी वाहुबली भगवान की तपोरत विराट् मूर्ति के निर्माण का विचार निरन्तर चल रहा था।
सेनापति चामुण्डराय ने अपने प्रतापी शासक राजा मारसिंह की समाधि के समय सम्भवतया भगवान् बाहुबली की विशाल प्रतिमा के निर्माण का स्वप्न लिया होगा। दक्षिण भारत के शिल्पियो को संगठित करने में जैन धर्म के यापनीय सघ की प्रभावशाली भूमिका रही है। इस महान् मूर्ति के निर्माण की संकल्पना में आदिपुराण को साकार करने के लिए समर्थ आचार्य अजितसेन और आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का वरदहस्त सेनापति चामुण्डराय को उपलब्ध था। आचार्य अजितसेन की परिकल्पना से भगवान गोम्मटेश्वर का प्रबल पापाण पर मूल्यांकन आरम्भ हो गया। आचार्यद्वय-अजितसेन एवं नेमिचन्द्र की कृपा से भगवान् गोम्मटेश की लोकोत्तर मूर्ति का निर्माण सम्भव हुआ और इस प्रकार अपराजेय सेनापति चामुण्डराय की धनलक्ष्मी भगवान् गोम्मटेश के चरणों मे सार्थक हुई।
माता गुल्लिकायाज्जि को भगवान् गोम्मटेश्वर के मस्तकाभिषेक के अवसर पर असाधारण गौरव देने में भी सम्भवतया कुछ ऐतिहासिक कारण रहे हैं। दक्षिण भारत में यापनीय संघ के आचार्यों का अनेक राज्यवंशों एव जनसाधारण पर अपने असाधारण कृतित्व का प्रभुत्व रहा है। कन्नड़ भाषा के प्रारम्भिक अभिलेखों मे यापनीय संघ के साधुओं का अनेकशः उल्लेख