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अनेकान्त 58/3-1
वीरस्यास्य रणेषु भूरिषु वय कण्ठग्रहोत्कण्ठया तप्तास्सम्प्रति लब्ध-निर्वृतिरसास्त्वत्खड्ग-धाराम्भसा। कल्पान्तं रणरंगसिंग-विजयी जीवेति नाकांगना गीर्वाणी-कृत-राज-गन्ध-करणेि यस्मै वितीर्णाशिषः । आक्रष्टुं भुज-विक्रमादभिलषन् गंगाधिराजय-श्रियं येनादौ चलदंक-गंगनृपतिर्व्याभिलाषीकृतः। कृत्वा वीर-कपाल-रत्न-चषके वीर-द्विषश्शोणितम् पातुं कौतुकिनश्च कोणप-गणाः पूर्नाभिलाषीकृताः।
धर्मपरायण माननीय श्री हर्गडे जी (लगभग ई. 1200) ने इसी स्तम्भ पर रक्ष देवता की मूर्ति का निर्माण कराने के लिए इस दुर्लभ अभिलेख को तीन ओर से घिसवा दिया। किन्तु श्री हर्गडे जी के इस भक्तिपरक अनुष्ठान के कारण इस शिलालेख के महत्त्वपूर्ण अश लुप्त हो गए है। परिणामस्वरूप जैन समाज महान् सेनानायक चामुण्डराय और गोम्मट विग्रह के निर्माण की प्रामाणिक जानकारी से वंचित रह गया है। चामुण्डराय के पुत्र आचार्य अजितसेन के शिष्य जिनदेवण ने लगभग 1040 ई. में श्रवणवेलगोल में एक जैन मन्दिर (अभिलेख 67 (121)) बनवाकर अपने यशस्वी पिता की भांति भगवान् गोम्मटेश के चरणो में श्रद्धा अर्पित की थी। आचार्य अजितसेन की यशस्वी शिष्य परम्परा कनकनन्दि, नरेन्द्रसेन (प्रथम), त्रिविधचक्रेश्वर, नरेन्द्रसेन, जिनसेन और उभयभाषा चक्रवर्ती मल्लिपेण की श्रवणबेलगोल के विकास एवं संरक्षण में रुचि रही है। __ श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् गोम्मटस्वामी की नयनाभिगम प्रतिमा अपने निर्माणकाल से ही जन-जन की आस्था के प्रतीक रूप में सम्पूजित रही है। एक लोककथा के अनुसार स्वर्ग के इन्द्र एव देवगण भी इस अद्वितीय प्रतिमा की भुवनमोहिनी छवि के दर्शन के निमित्त भक्ति भाव से पृथ्वी की परिक्रमा करते है। भगवान् गोम्मटस्वामी के विग्रह के निर्माण मे अग्रणी सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने कर्मकाण्ड की गाथा म 969 में भगवान वाहवली स्वामी की विशाल प्रतिमा के लोकोत्तर स्वरूप