Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 211
________________ अनेकान्त 58/3-4 थोड़ी-सी कषाय अर्थात् भरतभूमि पर खड़े रहने का परिज्ञान, का उल्लेख किया है, शल्य का नहीं। आचार्य जिनसेन कृत 'हरिवंशपुराण' (सर्ग 11/68) में बाहुबली के एक वर्ष के प्रतिमायोग का उल्लेख मिलता है। इसी पद्य में बाहुबली के कैलाश पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख भी आया है। जैन पुराणों में हरिवंशपुराण ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें भरत एवं बाहुबली के युद्ध की निश्चित संग्राम भूमि अर्थात् वितता नदी के पश्चिम भाग का उल्लेख मिलता है। सम्भवतया हरिवंशपुराणकार ने ऐसा लिखते समय किसी प्राचीन कृति का आधार लिया होगा। बाहुबली के कैलाश पर्वत पर तपस्या करने के उल्लेख से यह सिद्ध हो जाता है कि तपोरत बाहुबली में शल्य-भाव की विद्यमानता परवर्ती लेखकों की कल्पना मात्र है। महाकवि पुष्पदन्त ने 'महापुराण' (18/5/8) में बाहुबली के कैलाश पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख इस प्रकार किया है-'गए केलासु परायउ भयुबलि।' उन्होनें बाहुबली के चरित्र की विशेषता में 'खाविउं खम भूसणु गुणावंतह' और 'पई जित्ति खमा वि खम भावे' जैसी काव्यात्मक सूक्तियां लिखकर उन्हे गुणवानों मे सर्वश्रेष्ठ एवं क्षमाभूषण के रूप में समादृत किया है। आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण पर्व (36/137) में सत्य ही कहा है कि तपोरत बाहुबली स्वामी रसगौरव, शब्दगौरव और ऋद्धिगौरव से युक्त थे, अत्यन्त निःशल्य थे और दश धर्मों के द्वारा उन्हें मोक्षमार्ग में दृढ़ता प्राप्त हो गई थी। इस प्रकार उपरोक्त पांचों जैन पुराणों के तुलनात्मक विवेचन से यह सिद्ध होता है कि तपोरत बाहुबली में शल्य भाव नहीं था। भगवान् बाहुबली का कथानक जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय रहा है। जैन धर्म की पौराणिक रचनाओं में बाहुबली स्वामी का प्रकरण बहुलता से मिलता है। प्रारम्भिक रचनाओं में यह कथानक संक्षेप में दिया गया है और परवर्ती रचनाओं में इसका क्रमशः विस्तार होता गया। भगवान् बाहुबली को धीर-वीर उदात्त नायक मानकर अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना हुई है। आधुनिक कन्नड भाषा के अग्रणी साहित्यकार श्री जी. पी. राजरत्नम् ने गोम्मट-साहित्य की विशेष रूप से ग्रन्थ-सूची तैयार की

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