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अनेकान्त 58/3-4
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ततो भ्रात्रा समं वैरमवबुध्य महामनाः। संप्राप्तो भोगवैराग्य परमं मुजविक्रमी।। संत्यज्य स ततो मोगान् भूत्वा निर्वस्त्रभूषणः। वर्ष प्रतिमया तस्थौ मेरुवन्निः प्रकम्पकः।। वल्मीकविवरोधातैरत्युग्रैः स महोरगैः। श्यामादीनां च वल्लीभिः वेष्टितः प्राप केवलम् ।।
(पद्मपुराण, पर्व 4/74-76) आचार्य रविषेण के अनुसार उदारचेता बाहुबली भाई के साथ वैर का कारण जानकर भोगों से विरक्त हो गए और एक वर्ष के लिए मेरु पर्वत के समान निष्प्रकम्प खड़े रहकर प्रतिमा योग धारण कर लिया। उनके पास अनेक वामियां लग गई जिनके बिलों से निकले हुए विशाल सर्पो और लताओं ने उन्हें वेष्टित कर लिया और अन्ततः इसी दशा में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
महाकवि स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (संधि 4/12) में वाहुबली स्वेच्छा से तपोवन में जाते हैंकिं आएं साहमि परम-मोक्नु। जर्हि लब्मइ अचलु अणन्तु सोक्खु ।। सुणिसल्लु करेंवि जिणु गुरु भणेवि। थिउ पञ्च मुट्ठिसिरे लोउ देवि।। ओलम्बिय-करयलु एक्कु वरिसु। अविओलु अचलु गिरि-मेरु सरिसु ।। अर्थात् इस पृथ्वी से क्या? मै मोक्ष की समाराधना करूंगा, जिससे अचल, अनन्त और शाश्वत सुख मिलता है। बाहुबली ने निःशल्य होकर जिनगुरु का ध्यान किया और पंचमुष्टियों से केशलोचन किया। बाहुबली दोनों हाथ लम्बे कर एक वर्ष तक मेरु पर्वत की तरह अचल और शान्त चित्त होकर खड़े रहे। महाकवि स्वयंभू ने सन्धि 4/13 में तपोरत बाहुबली में