Book Title: Anekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 208
________________ अनेकान्त 58/3-4 अर्थात् प्रथम तो बाहुबली भरत के छोटे भाई थे, दूसरे भरत को धर्म का प्रेम बहुत था, तीसरे उन दोनों का अन्य अनेक जन्मों से सबंध था, और चौथे उन दोनों में बड़ा भारी प्रेम था। इस प्रकार इन चारों में से एक-एक भी भक्ति की अधिकता को बढ़ाने वाले हैं, यदि यह सब सामग्री एक साथ मिल जाये तो वह कौन-सी उत्तम क्रिया को पुष्ट नहीं कर सकती अर्थात् उससे कौन-सा अच्छा कार्य नहीं हो सकता? समस्त पृथ्वी पर धर्म साम्राज्य की स्थापना करने वाले चक्रवर्ती सम्राट भरत को इस सनातन राष्ट्र की सांस्कृतिक सम्पदा-आत्मवैभव से श्रीमंडित सिद्ध पुरुष के रूप में जाना जाता है। इसीलिए उन्हें 'राजयोगी' के रूप में भी स्मरण किया गया है। धर्मप्राण भरत ने जिनेन्द्र बाहुबली के ज्ञान कल्याण की भक्तिपूर्वक रत्नमयी पूजा की थी। उन्होंने रत्नों का अर्घ बनाया, गंगा के जल की जलधारा दी, रत्नो की ज्योति के दीपक चढ़ाये, मोतियों से अक्षत की पूजा की, अमृत के पिण्ड से नैवेद्य अर्पित किया, कल्पवृक्ष के टुकड़ों (चूर्णो) से धूप की पूजा की, पारिजात आदि देववृक्षों के फूलों के समूह से पुष्पो की अर्चा की, और फलो के स्थान पर रत्नो सहित समस्त निधियाँ चढ़ा दीं। इस प्रकार उन्होंने रत्नमयी पूजा की थी। सम्राट् भरत की भक्तिपरक रत्नमयी पूजा के उपरान्त स्वर्ग के देवों ने भगवान् गोम्मटदेव की विशेष पूजा की । केवलज्ञानलब्धि के समय अनेक अतिशय प्रकट हुए, जैसे-सुगन्धित वायु का संचरण, देवदुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, छत्रत्रय, चंवरों का डुलना, गन्ध कुटी आदि का स्वयमेव प्रकट हो जाना। आचार्य जिनसेन के अनुसार भगवान् बाहुबली के नाम के अक्षर स्मरण में आते ही प्राणियों का समूह पवित्र हो जाता है। उनके चरणों के प्रताप से सर्पो के मुंह के उच्छवास से निकलती हुई विष की अग्नि शान्त हो जाती है। तपोनिधि भगवान् गोम्मटेश की विराट् प्रतिमा की संस्थापना की

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