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अनेकान्त 58/3-4
बाहु तस्य महाबाहोरधातां बलमर्जितम् ।
यतो बाहुबलीत्यासीत् नामास्य महसां निधेः।। लम्बी भुजावाले तेजस्वी उन बाहुबली की दोनों भुजाएँ उत्कृष्ट बल को धारण करती थीं। इसीलिए उनका 'बाहुबली' नाम सार्थक था।
अत्यन्त पराक्रमी होने के कारण ‘भुजबली', 'दोरबली', एवं सुनन्दा से उत्पन्न होने के कारण वे ‘सौनन्दी' नाम से भी जाने जाते थे। वे वीर और उदार हृदय थे। अधिक की उन्हें लालसा नहीं थी। राज्यों पर विजय प्राप्त करने की उनकी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी। वे विशिष्ट संयमी थे। शरणागत की रक्षा के लिए, अन्याय के प्रतिकार के लिए ही अग्रज भरत के प्रति असीम आदर रखते हुए भी उन्होंने उनके शत्रु बज्रवाहू को अपने यहाँ शरण दी थी। अपने पिता द्वारा दिए राज्य से वे संतुष्ट थे।
भरत ने सिंहासनारूढ़ होकर दिग्विजय की दुन्दुभि बजा दी और चक्रवर्ती सम्राट का विरद प्राप्त किया। सभी राजाओं ने उनकी आधीनता स्वीकार कर ली। उनके स्वतन्त्रता प्रेमी भाईयों ने संन्यास धारण कर लिया। किन्तु जब वे दिग्विजय से लौटे तो उनके चक्ररत्न ने आयुधशाला में प्रवेश नहीं किया। कारण खोजने पर पता लगा कि उनके अनुज बाहुबली ने उनका स्वामित्व स्वीकार नहीं किया था। दूत भेजा गया। बाहुबली ने स्पष्ट किया कि भाई के रूप में वे बड़े भाई भरत के समक्ष शीश झुकाने को सदैव तत्पर हैं किन्तु राजा के रूप में वे स्वतंत्र शासक हैं, उनका शीश किसी राजा के समक्ष नहीं झुक सकता। यह एक राजा को अपने सम्मान, अपनी स्वतन्त्रता, न्याय के पक्ष तथा विस्तारवादी नीति के विरुद्ध चुनौती थी। परिणाम स्वरूप युद्ध की घोषणा हुई। सेनायें आमने-सामने आ डटीं। 'पउमचरिउ'22 तथा 'आवश्यक चूर्णी के अनुसार बाहबली ने स्वयं ये प्रस्ताव रखा कि यद्ध में सेनाओं की व्यर्थ की बर्बादी को रोका जाए और दोनों भाई द्वन्द के द्वारा जय पराजय का निर्णय करें। यह एक अहिंसक निर्णय था। बाहुबली युद्ध की विभीषिका से परिचित थे। सेनाओं की उनके कारण व्यर्थ क्षति हो, ऐसा वे नहीं चाहते थे।