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अनेकान्त 58/3-4
____ अर्थात् हे पुत्रों ! इस विनाशी राज्य से क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? इस राज्य के लिए ही शत्रु मित्र हो जाते हैं, पुत्र और भाई शत्रु हो जाते हैं तथा सबके भोगने योग्य पृथ्वी ही स्त्री हो जाती है। ऐसे राज्य को धिक्कार हो। तुम लोग धर्म वृक्ष के दयारूपी पुष्प को धारण करो जो कभी भी म्लान नहीं होता और जिस पर मुक्तिरूपी महाफल लगता है। उत्तम तपश्चरण ही मान की रक्षा करने वाला है। दीक्षा ही रक्षा करने वाली है, गुण ही सेवक है, और यह दया ही प्राणप्यारी स्त्री है। इस प्रकार जिसकी सब सामग्री प्रशंसनीय है ऐसा यह तपरूपी राज्य ही उत्कृष्ठ राज्य है। भगवान् ऋषभदेव के मुखारविन्द से सांसारिक सुखों की नश्वरता और मुक्ति लक्ष्मी के शास्वत सुख के उपदेशामृत का श्रवण कर भरत के सभी अनुजों ने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली। स्वतन्त्रता प्रेमी पोदनपुर नरेश बाहुबली अब सम्राट् भरत के लिए एकमात्र चिन्ता का कारण रह गये। __सम्राट् भरत अपने अनुज बाहुबली के बुद्धिचातुर्य एवं रणकौशल से अवगत थे। आदिपुराण के पैंतीसवें पर्व (पद्य 6-7) में वह बाहुबली को तरुण बुद्धिमान, परिपाटी विज्ञ, विनयी, चतुर और सज्जन मानते हैं। पद्य 8 में वे बाहुबली की अप्रतिम शक्ति, स्वाभिमान, भुजबल की प्रशंसा करते हैं। बाहुबली के सम्बन्ध में विचार करते हुए सम्राट भरत का मन यह स्वीकार करता है कि वह नीति में चतुर होने से अभेद्य है, अपरिमित शक्ति का स्वामी होने के कारण युद्ध में अजेय है, उसका आशय मेरे अनुकूल नहीं है। इसलिए शान्ति का प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। अर्थात् बाहुबली के सम्बन्ध में भेद, दण्ड और साम तीनों ही प्रकार के उपायों से काम नहीं लिया जा सकता। अपभ्रंश कवि स्वयम्भूदेव एवं पुष्पदन्त ने महाबली बाहुबली की अपरिमित शक्ति से सम्राट् भरत को अवगत कराने के लिए क्रमशः मंत्री एवं पुरोहित का विधान किया है। महाकवि स्वयम्भू के पउमचरिउ का मन्त्री राजाधिराज भरत से कहता हैपोअण-परमेसरु चरम-देहु । अखलिय-मरटु जयलच्छि-गेहु ।। दुव्वार-वइरि-वीरन्त-कालु। णामेण वाहुबलि वल-विसालु ।।