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अनेकान्त 58/3-4
महाकवि पुष्पदन्त के महाकाव्य का राजदूत सम्राट भरत की अपरिमित शक्ति का विवेचन कर बाहुबली को युद्ध में पराजित होने का भय दिखलाकर भरत को कर देने का सुझाव देता है। स्वाभिमानी बाहबली अपने आन्तरिक गुणों के अनुरूप राजदूत को गागर में सागर जैसा उत्तर देते हुए कहते हैं
कंदप्पु अदप्पु ण होमि हउं दूययकरउ णिवारिउ।। संकप्पें सो महु केरएण पहु डज्झिहइ णिरारिउ।।
(महापुराण) अर्थात् मैं (कामदेव) हूं, अदर्प (दर्पहीन) नहीं हो सकता। मैंने दूत समझकर मना किया है। मेरे संकल्प से वह राजा निश्चित रूप से दग्ध होगा।
एक सिद्धान्त प्रिय राजा के रूप में बाहुबली राज्य के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अपने पराक्रमी अग्रज भ्राता से भी युद्ध करने को सन्नद्ध हो जाते हैं। एक ऐतिहासिक सत्य यह भी है कि महाकवि स्वयम्भू, आचार्य जिनसेन एवं महाकवि पम्प (सन् 941 ई.) ने 'आदिपुराण' (कन्नड) में यश को ही राजा की एकमात्र सम्पत्ति घोषित किया है। इसीलिए भगवान् बाहुबली के विराट् व्यक्तित्व में 8वीं-9वीं शताब्दी के भारतीय इतिहास के प्राणवान् मूल्य स्वयमेव समाहित हो गए हैं। राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित अपराजेय बाहुबली राज्यलक्ष्मी के मद से पीड़ित राजा भरत के राजदूत के अनीतिपूर्ण प्रस्ताव की अवहेलना करके पोदनपुर के नगरजनों को अपने परिवार का अभिन्न अंग मानते हुए ओजपूर्ण वाणी में कहते हैं
जं दिण्णं महेसिणा दुरियणासिणा णयरदेसमेत्तं। तं मह लिहियसासणं कुल विहूसणं हरइ को पहुत्तं ।। केसरिकेसरू वरसइथणयलु, सुहडहु सरणु मज्झु धरणीयलु। जो हत्येण छिवइ सो केहउ, किं कयंतु कालाणलु जेहउ।।
(महापुराण)