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अनेकान्त 58/3-4
(7) शितिभिरलिकुलामैराभुजं लम्बमानैः
पिहितभुजविटंको मूर्धजैवेल्लिताः । जलधरपरिरोधध्याममूव भूधः
श्रियमपुषदनूनां दोर्बली यः स नोऽव्यात् ।। (8) स जयति हिमकाले यो हिमानीपरीतं
वपुरचल इवोच्चैर्बिभ्रदाविर्बभूव। नवधनसलिलौधैर्यश्च धौतोऽब्दकाले
खरघृणिकिरणानप्युणकाले विषेहे ।। (9) जगति जयिनमेनं योगिनं योगिवर्यै
रधिगतमहिमानं मानितं माननीयैः। स्मरति हृदि नितान्तं यः स शान्तान्तरात्मा भजति विजयलक्ष्मीमाशु जैनीमजय्याम् ।।
- आचार्य जिनसेन स्वामी
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति। दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रमैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासमाजि।।
__ - भक्तामर स्तोत्र, 9 हे भगवन् ! सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर रहे, किन्तु आपकी पवित्र कथा भी जगत के जीवों के पापों को नष्ट कर देती है।
सूर्य दूर रहता है, पर उसकी प्रभा ही तालाबों में कमलों को विकसित कर देती है।