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अनेकान्त 58/3-4
की विजयलक्ष्मी दैदीप्यमान चक्रमूर्ति के बहाने बाहुबलि के समीप आई परन्तु बाहुबलि ने उसे तृणवत समझ कर छोड़ दिया। भरत के चक्र चलाने का कारण यह था कि बाहुबली दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध, और मल्लयुद्ध में विजित हो चुके थे और उनके चक्र ने बाहुबली का बाल बांका भी नहीं किया था ।
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बाहुबली योग-साधना में लीन हैं। एक स्थान एक आसन पर खड़े रहने का नियम लिए हैं । न आहार है न बिहार और न निहार, न निद्रा है और न तन्द्रा, केवल ज्ञान और ध्यान है । एक से अधिक माह यों ही बीते । समीप का स्थान वन - वल्लरियों से व्याप्त हो गया, उनके चरणों के समीप सर्पो ने वामियां बना लीं । वामियों से सर्पों के बच्चे निकलते रहे, उनके लम्बे-लम्बे केश कन्धों तक लटकते रहे, फूली हुई बासन्ती लता अपनी शाखा रूपी भुजाओं से उनका आलिंगन कर रही है ।
बाहुबली महान् अध्यात्म योगी हैं । इन्होंने शरीर से आत्मा को पृथक् समझ लिया है। ये अपनी आत्मा को अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्यमय देख रहे हैं । अनन्त गुणों के पुंजस्वरूप अपनी आत्मा का श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में तन्मयरूप चारित्र, यों ये भी निश्चय रत्नत्रय रूप से परिणमन कर शुद्धोपयोग में लीन हो रहे पर कालान्तर में कभी उत्कृष्टतम शुभोपयोगी भी हो जाते हैं । इन्होंने ध्यान और तपश्चरण के बल से मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय चार ज्ञान प्राप्त कर लिए। चूंकि ये तपस्यामूलक श्रम से अणु भर भी मन में खेद खिन्न नहीं हैं अतएव आत्मिक आह्लाद की उज्जवल झलक इनके सुमुख पर है ।
शरीर पर लतायें चढ़ गई । सर्पो ने वामियां बना लीं । विरोधी वनचर प्रशान्त होकर विचरण करते रहे। बाहुबली सुमेरु सदृश सुदृढ़ ही रहे और निष्कम्प प्रतिमा योग धारण किए हैं और अब पूर्णतया केवलज्ञानी हो गये हैं इसलिए चक्रवर्ती भरत उनकी प्रशंसा कर रहे हैं
" आपकी एकाग्रता, आपका धैर्य धन्य है । आपने आहारादि सज्ञाओं सदृश क्रोधादि चार कषायों को ही नहीं जीता बल्कि चार घातिया कर्मो