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अनेकान्त-58/1-2
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हैं। अतः हिंसा आदि पापों से विरत होना ही व्रत है और सुसंगत है। व्रत ग्रहण करने की परम्परा या धारणा शास्त्र सम्मत प्रतीत नहीं होती। दस धर्म, बारह भावनाएँ, सप्त व्यसनों का त्याग, सुभाषित, उपदेश आदि के विधान तो नैतिक अर्थात् सामाजिक सदाचार परक हैं।
यह भी ध्यान में रखने की बात है कि अहिंसा-सत्य आदि धर्म तो हैं, पर सिद्धान्त नहीं हैं-व्यक्ति और समष्टि सापेक्ष ही हैं। देश-काल-भाव-परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील हैं। लेखक ने सभी प्रकार की साधनाओं तथा क्रियाओं का मूल केन्द्र अपरिग्रह ही तर्कशुद्ध शैली में प्रतिपादित किया है।
जब जैन संस्कृति का मूल आधार अपरिग्रह है, तब अपरिग्रह को एक किनारे रखकर परिग्रह के प्रति इतना अधिक आकर्षण और लगाव कैसे बढ़ता गया? और सुख भोग की दृष्टि से अहिंसा आदि नैतिक गुणों को परमधर्म मानकर संग्रह प्रियता को पुण्य का परिणाम मान लिया गया? लेखक कहते हैं "हमारी भूल रही है कि हम अन्य व्रत आदि क्रियाओं को जैनत्व का रूप देने में आसक्त रहे हैं और अपरिग्रह की आसक्ति से नाता तोड़े हुए हैं।... वर्तमान में अहिंसा-सत्य-अचौर्य और ब्रह्मचर्य की जैसी धुंधली परिपाटी प्रचलित है, उसमें यदि सुधार आ जाए तो लौकिक मानव बना जा सकता है।" ___ तप-त्याग एवं अपरिग्रह की अवधारणा निवृत्तिमूलक चिन्तन की देन है। प्रवृत्ति-निवृत्ति, निमित्त-उपादान, निश्चय-व्यवहार, आत्मा-अनात्मा, सम्यक्-मिथ्या, कर्म-अकर्म, शुद्ध-अशुद्ध, सत्य-मिथ्या आदि के द्वन्द्वों से हमें दार्शनिकों तथा चिन्तनशील मनीषियों ने बौद्धिक व्यायाम द्वारा उलझन में या असमंजस में डाल दिया है। परिणाम ये है कि सत्ता-सम्पत्ति और शस्त्र की आकांक्षा और होड़ तो बढ़ गयी, पर हमारा मानस संवदेन शून्य हो गया मानवीय निष्ठा लुप्त हो गयी और संग्रह के बल पर 'समाज और देश' व जाति सम्प्रदाय, धर्म, अध्यात्म, भाषा, क्रियाकांड आदि के घेरों में अंह को पुष्ट करते हुए ऐसा सिद्धान्त गढ़ लिया कि संसार में सारा सुख-दुःख कर्माधीन है। कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता सब क्रमबद्ध पर्याय के अनुसार भोगना पड़ता है।