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अनेकान्त-58/1-2
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पुस्तक छोटी सी है, विचार प्रेरणा दायी हैं, संस्कृति के मूल तत्व को समझने में सहायक है। लेकिन यदि वे सीधी-सरल भाषा में अपने विचार रखते तो आम पाठक को अधिक सुविधा होती। मैं ऐसे दो चार वाक्य या अंश उद्धृत कर सकता था, जो कि मेरी समझ मे भी नहीं आ रहे थे। सरल भाषा का अपना महत्त्व है, यह सभी जानते है। प्रिय भाई डा. कमलेशकुमार के द्वारा पुस्तक पढ़ने को मिली, अतः यह लिखने का श्रेय उन्हीं को जाता है।
समीक्षक -जमनालाल जैन
सारनाथ (वाराणसी)
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स्वदोष-शान्त्या विहिताऽऽत्मशान्तिः शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः।।
- 'जिन्होंने अपने दोषों की शान्ति करके अर्थात् पूर्ण निवृत्ति करके पूर्ण सुखस्वरूपा स्वाभाविक स्थिति । प्राप्त की है, और (इसलिये) जो शरणगतों के लिये शान्ति के विधाता हैं वे भगवान शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं-शरणभूत हैं। अतः मेरे संसार परिभ्रमण की, क्लेशों की और भयों की उपशान्ति के लिये निमित्तभूत होवें।।
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