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१२, वर्ष ३० कि० ४
पत्र फूल फल लेय न हाथ,
वाहन चड़े न चाहे साथ ।।१२०
जंत्र मंत्र नही सार्धं घने,
वैद्यक ज्योतिष धातु सब मर्ने । यह विधि क्रिया भव्य ज
आठवीं प्रतिमा तासौ पलै ।।१२१ दश विधि उपधा बाह्य जु छाड़,
भोग उपभोग तजि इन्द्रियन डाडे । कटि कोपीन वस्त्र इक धर
नवमी प्रतिमा जिनवर कद्दू ।। १२२ विकया चार तजै उपदेश,
हारि जीति मन धरै न लेश । हिंसा कर्म वचन नही भासै,
क्षमा भाव सबही सो राखे ।।१२३ मोह काम तजि मान निवारि,
क्रोध, लोभ, माया, मद जारि इह विधि क्रिया च गुणवत,
अनेकान्तं
प्रतिमा दशमी लहे तुरन्त ।।१२४ माटी काठ को पात्र जु लोइ,
शौच हेतु पुनि राखे सोइ । पीछी जीव दया हित लेइ,
दृष्टि देखु धरनी पगु देइ ।। १२५ कटि कोपीन लुचि विधि पूरी,
तजि ग्रह वास तपस्या सूरो पाणि पात्र भोजन शुभ करें,
पच घरा फिर नियामा घरं ।। १२६ अस्थि चर्म जीव वध जो देखे,
मांस रुधिररी दुर्गंधा पेखें । प्रत्याख्यान क्षीण होय तहां,
अंतराय पुनि मानें जहां ॥१२७ इह विधि क्रिया चले आचार,
सो एकादश प्रतिमा धार
ये प्रतिमा सक्षेप वखानि,
कहें शिरोमणि सुनि जिनवर वाणी ।। १२८
षट् पनिमा लौं होइ जघन्य,
सात, आठ मध्यम गन्य |
प्रतिमा दशमी ग्यारहमी जानि,
उत्तम श्रावक कहौ बखानि ॥ १२६ ॥ इति एकादश प्रतिमा ॥
अथ पात्र वर्णन -
प्रथम पात्र पुनि दान विचारी,
पुनि विधि कही सुनो हितकारी । यथाख्यात चारिण को घारी,
सो मुनि महापात्र गुणधारी ॥१३० अभ्यंतर वाहिज (बाह्य) तप शुद्ध,
बनवासी तप चारी बुद्ध वीस चार उपधी को त्यागी,
देह भोग संसार विरागी ॥१३१ अष्टावीस मूल गुण पाले,
सहैं परीसह चित्त न चाले । छटै सातै गुणथाने रहे,
उत्कृष्ट पात्र श्री जिनवर कहै ॥ १३२ एकादश प्रतिमा जु कही,
श्रावक पाले मन वच सही । पंचम गुण स्थान च गुणवत
मध्यम पात्र सो होय तुरन्त ।।१३३ दया क्रिया नही पालै रंच,
इन्द्रिय मन पुनि करै न खंच ।
है केवल दृढ़ता जिनवाणी,
श्रद्धा भक्ति करे गुण जानी ॥१३४ मिथ्यात्व सकल छोड़े निज हेतु,
समकित गुण सौ घर सुचेत । चढ़ि चौथो गुण थाने धीर,
जघन्य पात्र सो जानो बीर ॥१३५ समकित भेद न जाने जो लौं,
कोटिक व्रत तप करइ जु बंध मोक्ष को भेद न पावे,
सो कुपात्र यह तुरत कहावै ॥ १३६ व्रत आचार कछु नहीं करें,
समकित भाव न मन में धरं । महा मिथ्यात्वी विषयनि लीन,
तोली ।
तासी अपात्र कहाँ यह पीन्ह ॥ १३७ ॥ इति पात्र वर्णन ॥