Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 20
________________ १५ वर्ष १८०१ में इसी रूप को उत्तम माना जाता है। यही कारण है कि प्रायः पी०एच०डी० प्राप्त विद्वान् अपने उपाधि-निरपेक्ष water को मान्यता देते प्रतीत नहीं होते । 'पडित परम्परा के योगदान' पर आयोजित एक संगोष्ठी में यह प्रवृत्ति परिलक्षित हुई थी। सम्भवत: इसीकारण, जब भी शोधकार्य का समाकलन होता है, तब उपाधिपरक शोध का ही विवरण मिलता है, उपाधि निरपेक्ष शोध या शोध कर्त्ताओं के अनुसंधान क्षेत्रों या महत्वपूर्ण कृतियों का सामान्य निर्देश तक नहीं किया जाता। यह प्रवृत्ति बहुत चिकर नहीं प्रतीत होती और न ही यह शोध का पूर्ण विवरण हो प्रस्तुत कर पाती है। अनेकान्त भारत में उपाधि निरपेक्ष शोध से हो 'जैन विद्यायें' पल्लवित हुई हैं। इस कोटि में विषय वस्तु और ज्ञान गरिमा का अनूठा रूप देखने को मिलता है। यह शोध स्वान्तः सुखाय होती है और जीवन के लक्ष्य के रूप में होती है। आजीविका इसका गौण लक्ष्य होता है। नाथूराम प्रेमी, मुख्तार सा०, परमानन्द शास्त्री, दलसुख भाई, मुनि कान्ति सागर, बालचंद्र एवं फूलचंद्र शास्त्री, अगरचंद्र नाहटा, बालपद्र और कुंदनलाल जैन आदि के नाम किसे श्रद्धाप्रेरित नही करते ? आज भी अनेक शोधविद्वान् प्रकाशस्तम्भ बने हुए हैं। इनमे जी० आर० जैन, मुनि महेन्द्र कुमार, एल० सी० जैन आदि सुज्ञात है । शोध के ये दोनो ही रूप 'जैन विद्याओं को प्रकाशित करते हैं। इन्हें एक-दूसरे का पूरक और संवर्धक गानना चाहिये। इसलिए लेखक का सुझाव है कि जैन विद्या शोध विवरणिकाओं में उपाधि निरपेक्ष एवं उपाध्युत्तर शोध का भी विवरण होना चाहिए । शोध का संचरण वर्तमान युग में अनुसंधान कार्य का जितना महत्व है, उससे भी अधिक महत्वपूर्ण कार्य है उसका समुचित रूप में संचरण यह न केवल पूर्व-कृत शोध की जानकारी देता है, अपितु यह शोध के नए क्षितिजों की ओर संकेत भी देता है। आज ज्ञान का संचरण अनेक रूपों में किया जा सकता है (अ) शोधकार्यो का समुचित रूप में प्रकाशनइसका एक रूप है। इस विधा में दो कठिनाइयां अनुभव में आई हैं। प्रकाशित शोध-प्रबंध का मूल्य अधिक होता है। दूसरे, अधिकांश शोध प्रबंध असपादित एवं संक्षेपित ही प्रकाशित होते हैं। इन्हें लिखने की विद्या के जानकार यह कहते हैं कि संपादन से प्रवन्ध दो-तिहाई रह जाता है। जिससे उसकी ग्राहकता एवं उपयोगिता बढ़ जाती है। (ब) शोध-संगोष्ठियां परिसंवाद - शोध- सचारण के दूसरे माध्यम हैं । इनमें पठित शोधपत्रो का संपादित प्रकाशन ऐसे आयोजनों का एक अनिवार्य अंग होना चाहिए। पूना और उदयपुर ने इस दिशा मे उदाहरण प्रस्तुत किया है । अनेक आयोजनों मे पठित शोधपत्रो की प्रकाशित या साइक्लो स्टाइलित प्रतियों के वितरण की परम्परा देखी गई है। यह भी और भी अच्छा होता कि इनके बदले इनका एकीकृत पुस्तकाकार रूप ही वितरित किया जाता । (स) शोध संक्षेरिकाएं भी शोध संचरण का एक रूप है। वैज्ञानिक विषयों में विश्व के किसी भी भाग में होने वाली शोध के सार-संक्षेप को प्रकाशित करने वाली पत्रिकायें (जैसे केमिकल एक्स्ट्रेक्ट) राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा प्रकाशित कर अल्पमूल्य में ही खडश शोधकर्ताओं में प्रसारित की जाती है। जैन विद्याओं के क्षेत्र मे यह परम्परा प्रायः अज्ञात है। जैन संदेश शोधांक ने इस दिशा में नेतृत्व किया था, पर उसके सीमित प्रमारण हो अब तक प्रकाशित विवरणिकाओं में उसका नामोल्लेख नहीं हो सका। अब तो वह भी बंद हो गया है । जैन विद्या के क्षेत्र मे, वर्तमान में, अनेक राष्ट्रीय एव अंतर्राष्ट्रीय मान्यता की स्वायत्त संस्थायें कार्यरत है। इनमें से कम-से-कम एक संस्था को अपनी प्रकाशित पत्रिक पत्रिका को 'जैन शोध वार्षिकी' के विशेषाक के रूप में अथवा स्वतन्त्र प्रकाशन के रूप में 'शोध सार' क्रम से निकालना चाहिये। इसके लिये यह आवश्यक होगा कि यह संस्था प्रत्येक शोध प्रबंध की माइक्रोफिल्म का फोटोकापी प्राप्त करें और उसका स्रक्षेपण कराये। इस समय औसतन जैन विद्या में पच्चीस शोधोपाधियां प्रति

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