________________
२४, वर्ष ३६ कि..
भनेकान्त
से कुशील, और स्वच्छन्द के संसर्ग से स्वच्छन्द हो जाते खिन्न होने के कारण अवसन्न कहा जाता है। कुत्सित हैं अर्थात् वे दूसरे में मिलकर उन जैसे ही हो जाते हैं। शील वाले मुनि को कुशील कहा जाता है। यह कौतुक इसी कारण संसक्त कहे जाते हैं।" जो मुनि साधु संघ से कुशील, यूतिकर्मकुशील, प्रसेनिका कुशील, अप्रसेनिका निकल कर आगम विरुद्ध मार्ग की इच्छानुसार कल्पना कुशील, निमित्तकुशील, आजीव कुशील, कक्वकुशील, करता है वह यथाछन्द साधु है । इन्द्रिय और कषाय- कुहन कुशील, सम्मूर्छनकुशील, प्रवातन कुशील आदि रूपी तीव्र परिणाम होने के कारण सुखपूर्वक समाधि में अनेक प्रकार का होता है।" लगा जो साधु तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी है और तप-शास्त्रविहित आचरण में दोष लगाने वाला, चरित्र भ्रष्ट साधु की क्रिया करता है ऐसा साधु अवसन्न किन्तु सत्त्व, धैर्य आदि गुणों से युक्त श्रमण जो प्रायश्चित कहलाता है। जिस प्रकार जो कोई कीचड़ में फंस गया शास्त्रोक्त उपवास आदि करता है, वह तप प्रायश्चित है। या मार्ग में थक गया तब उसको अवसन्न कहा जाता है छेद-असंयम के प्रति ग्लानि प्रकट करने के लिए और वह अवसन्न द्रव्यरूप से है, उसी प्रकार चारित्र दीक्षा काल को कम कर देना छेद प्रायश्चित है। अनअशुद्ध के भावसे अवसन्न होता है । वह उपकरण, वसतिका, गार धर्मामृत (गा० ७.५३) में कहा है-जो साधु चिरस्वाध्याय, विहार करने की भूमि के शोधन में ईर्यासमिति काल से दीक्षित है, निर्मद है, समर्थ है और शर है यदि आदि में स्वाध्याय के काल का ध्यान रखने में तथा उससे अपराध हो जाए तो दिन, पक्ष या मास आदि का समिति में तत्पर नहीं रहता, छह आवश्यकों में आलस्य विभाग करके दीक्षा छेद देने को छेद प्रायश्चित कहते हैं। करता है। इस प्रकार चरित्र का पालन करते हुए वह खेद
(क्रमश:) सन्दर्भ सूची १. सर्वार्थसिद्धि ६, २. पयनन्दिपंचविंशतिका १८, २५. भ०भ० २४४-२३९, २६. म. आ. गा० २३०, ३. भगवती आराधना गा० ६.१०, ४. अनगार धर्मामा २७. भ०आ० गा० २३१, २८. भ०आ०गा० २३२, गा० ७२, ५. मूलाचार गा० ३४५, ६.भ. आ० गा० २६, अं० धर्मा० ७/३१ । २१०, मू० आ० गा० ३४६, ७ मू० आ० गा० ३६०, ३०. आदा कुलं गणो पवयण च सो भाविदं हवदि सव्वं । ८. भ. आ० गा० १०६ की विजयोदया टीका, ६. अनगार
अलसत्तणं च विजई कम्मं च विणियं होदि ॥२८॥ धर्मामत ७।३३, १०. भ. आ० गा० १३४२ की वि०, ३१. बहुगाणं सवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाण । ११. भ.आ. गा. १३४४, १२. अं० धर्मा. गा. ७.११ टीका
४४ 0 अं० धर्मा. गा. ७११ टीका मग्गो य दीविदो भगवदो य अणणालिया आणा ॥२४५ १३. अद्धाणसणं सव्वाणसणं दुविहं तु अणसण भणियं । ३२. देहस्स लाधव संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं ।
विहरंतस्स य अदाणसणं इदरं च चरिमते ॥२११म.आ. जवणाहारो संतोसदा य जहसंभवेण गुणा ॥२४६ भ.आ. १४. एगुत्तरसेढीय जावय कवलो वि होदि परिहीणो। ३३. भ०आगा० २२६-२४२, ३४. मृ०आगा० २६१ । अमोदरियतवो सो अद्धकवलमेव सिच्छं च ॥२१४॥
३५. म०आगा० २६२, ३६. भ० आगा० ४ण४ की वि.
भ.आ., म.आ.गा० ३५० १५. अं.धर्मा. ७।२२, १६. भ. आ. गा. २१७, मू.आ. ३५२
३७. उमास्वामी त० सूत्र ६।२२, ३८. मू०आ० पृ० २६३ १७. चत्तारि महाविडीओ होंति एवणीदमज्जमंसमहू ।
३६. भ०आग० ५३५, ४०. वही ५३६, ४१. वही ५३७ करवाफ्संगदप्पाइसंजमकारीओ एदाओ ॥२१।।
४२. वही ५५६, ४३. वही ५६३, ४४. अं. धर्मा. गा. ७४७
भ० आ०, म0आ०३५३ ४५. भ०आगा० ११८ की वि०४६. वही ११ की वि १८.०धर्मा.पृ० ५०७, १६. भ.आ. २१६, म.आ. ३५४, ४७. अ० धर्मा० ७.४८, ४८. वही ७४४-५०। २०. अं. धर्मा. ७।२६, २१. भ. आ० गा० २२०, ४६. मू.आ. गा. ३६२ की आचा. ५०. अं.धमी. गा.७५५ २२. भ० आ० गा० २२३, २३. भ. आ० गा० २२२ । ५१. भ.आ गा. १६४४ को वि. ५२. भ. आ. गा. १२६. २४. ठाणसयणासहिं य विवि हेहि य उग्गयेहिं बहुए हिं। ५३. भ.मा. १९४४ वि. ५४. भ.आ. १३०४, १९४४ वि.
अणवीसीपरिताओकायकिलेसो हवदि एसो ॥३५६॥ ५५.भ.प्रा. १२८६५६. भ. आ. गा.१९४४५७. वही।