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तीर्थंकर पार्श्वनाथ की केवलज्ञान भूमि : प्रहिच्छत्रा
डा० ज्योति प्रसाद जंन
श्रमण जैन परम्परा के तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ ( ईसा पूर्व ८७७ ७७७ ) की ऐतिहासिकता आधुनिक इतिहासज्ञों द्वारा भी प्रायः सर्वमान्य तथ्य के रूप में स्वीकृत हो चुकी है । वह काशी-वाराणसी के काश्यपगोत्री उरगवंशी नरेश अश्वसेन और उनकी सहधर्मिणी वामादेवी के सुपुत्र थे । बाल्यावस्था से ही वह अत्यन्त निर्भय. शरवीर, मेधाबी एवं प्रतिभासम्पन्न, ससार-भोगो से प्रायः उदासीन, करुणामूर्ति एवं विन्तनशील व्यक्तित्व के धनी थे । अपने मातुल, कुशस्थलपुर (कन्नौज) नरेश के आव्हान पर एक दुर्दान्त विदेशी आक्रान्ता से उनके राज्य की रक्षार्थं राजकुमार पार्श्व वहाँ पहुचे और उक्त आक्रमणकारी को पूर्णतया पराजित करने मे सफल हुए। वही वन-विहार करते एकदा उन्होने कतिपय हठयोगि तप स्वियों से एक मरणासन्न नाग-नागि युगल की रक्षा की। इस घटना के परिणामस्वरूप पार्श्वकुमार का चित्त संसार से विरक्त हो गया. और उन्होने समस्त सांसारिक बधनों को तोड़कर, निःस्पृह, निष्परिग्रही एव अकिञ्चन हो वन की राह ली । साधिक चार मास की आत्मशोधनार्थ की गई तपः साधना के मध्य विचरते हुए कुरु जनपद की महानगरी हस्तिनापुर ( गजपुर ) पहुंचे। वहां पारणा करके, गंगा के किनारे-किनारे विहार करते हुए वह भीमाटवी नामक महावन में योग धारण कर कायोत्मर्ग मुद्रा मे ध्यानमग्न हो गए। इस अवस्था मे वहाँ उन पर शवर ( अपर नाम मेघमाली एव कमठ) नामक दृष्ट असुर ने भीषण उपसर्ग किये | नागराज धरणेन्द्र और यक्षेश्वरी पद्मावती ने उक्त विविध भयकर उपसर्गो का निवारण करने का यथाशक्य प्रयास किया । नागराज (अहि) ने भगवान के सिर के ऊपर अपने सहस्र फणो का वितान या छत्र बना दिया। स्वयं योगिराज पार्श्व तो शुद्धात्मस्वरूप मे लवलीन थे; उक्त उपसर्गों का उन्हें कोई भान ही नही
था, बल्कि उन्हें तभी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई, वह अर्हत् जिनेन्द्र बन गए। वन के बाहर आसपास के क्षेत्रों के निवासी लोगों की अपार भीड़ वहाँ एकत्र हो गई । भगवान की अर्चना वन्दना स्तुतिगान हुआ । उनकी समवसरण सभा जुड़ गई और लोग उनके सर्वकल्याणकारी दिव्य उपदेश को सुनकर कृतार्थं हुए । इस पुनीत स्थल से नातिदूर भीमाटवी वन के बाहिर, उत्तर पांचाल जनपद की राजधानी पांचालपुरी, अपर नाम परिचक्रा एवं शंखावती, अवस्थित थी । इस अभूतपूर्व घटना के कारण वह स्थान ही नहीं, वह नगरी भी छत्रावती या अहिच्छत्रा नाम से लोकप्रसिद्ध हुई ।
जैन पुराणों एवं पौराणिक काव्यों आदि में वर्णित तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरित्र के अन्तर्गत गहन वन मे ध्यानस्थ उन योगिराज पर असुर द्वारा किये गए भीषणउपसर्ग का तथा उसके निवारणार्थं नागराज धरणेन्द्र एव पद्मावती देवी द्वारा किये गए फणच्छत्र लगाने आदि प्रयासो का और वही उसी समय भगवान को केवलज्ञान प्राप्ति का सर्वत्र उल्लेख है । ११वी शती ई० मे अपभ्रंश भाषा में निबद्ध आचार्य पद्मकीर्ति के 'पासागाह - चरिउ' मे तो इस घटना का अति विस्तृत एव स्पष्ट वर्णन है । वहाँ उपसर्ग-स्थान का नाम भीमाटवी नामक महावन दिया है, जहा तपस्वी पार्श्व गजपुर ( हस्तिनापुर ) मे पारणा करने के पश्चात् विचरण करते हुए पहुंचे थे, किन्तु पांचाल, शंखावाती या अहिच्छत्रा नामो का कोई उल्लेख नही है । हां, ११ वी शती ई० के हरिषेणीय ! वृहत्कथा कोष', प्रभाचन्द्रीय 'आराधना-सत्कथा-प्रबन्ध' तथा कई उत्तरवतीं कथा कोपों- 'पुण्यास्रव कथाकोष', 'आराधना- कथाकोष', आदि मे भी अहिच्छत्रा के पार्श्व जिनालय में पद्मावती देवी के प्रभाव से ब्राह्मण विद्वान पात्रकेसरि स्वामी के मतपरिवर्तन, अर्थात् जिनेन्द्र के स्याद्वाददर्शन की श्रद्धानी