Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 113
________________ तीर्थकर पार्श्वनाथ की केवलज्ञान भमि : अद्विच्छत्रा बन जाने की कथा प्राप्त है। पात्र केसरी स्वामी का इन खम्हरों में मिली है, स्थान का अहिच्छत्रा नाम स्पष्ट समय छठी शती० ई० के लगभग अनुमानित है। इसके लिखा मिला है। उससे भी लगभग ३०० वर्ष पूर्व के अतिरिक्त, अचारांग-नियुक्ति में भी पार्श्व-उपसर्ग की कौशाम्बी के निकट पभोसा की पहाड़ी पर के एक गुहाघटना का प्रायः उपरोक्त पुराणो जैसा ही वर्णन है, लेख से प्रकट है कि उसका निर्माण कोशाम्बी-नरेश बहविशेष इतना है कि उस क्षेत्र का नाम कुरूजांगल देग सतिमित्र के मातुल, अहिच्छत्रा-नरेश आषाढ़सेन ने वहां किया है और नगरी का नाम शखावती, जिसके निकट- जाकर मुनियो के निवास के लिए कराया था-पभोसा वर्ती निर्जन वन मे यह घटना घटी थी। यह भी लिखा है कौशाम्बी मे जन्मे छठे तीर्थकर पपप्रभु का तप एवं मान कि कालान्तर मे उक्त स्थान मे भक्तजनो ने एक उत्तम कल्याणक स्थल है। इससे अहिच्छत्रा एवं कौशाम्बी के जिनालय बनाकर उसमे भगवान पार्श्व की नागफणालकृत तत्कालीन राजानों का जैन धर्मानुयायी होना भी सूचित प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी यह तीर्थ अहिच्छत्रा-पार्श्वनाथ होता है। दूसरी शती ई० के अन्तिम पाद में इसी अहिनाम से लोक प्रसिद्ध हुआ और निकटवर्ती सखावती नगरी च्छत्रा के राजा पद्मनाभ के दद्दिग एवं माधव नामक का नाम भी तभी से अहिच्छत्रा पड़ा। जिन प्रभसूरि ने पत्रद्वय ने दक्षिण देश में जाकर सिंहनन्दि के आशीर्वाद अपने "विविध-तीर्थ-कल' (ल. १३३० ई.) के अतर्गत एवं मार्गदर्शन में मैसूर के सुप्रसिद्ध गंगवाडी राज्य की 'अहिच्छत्रा नगरी कल्प' मे आचारागनियुक्ति के उपरोक्त स्थापना की थी, जो साधिक एक सहस्र वर्ष पर्यन्त स्थायी कथन का प्रायः अक्षरशः समर्थन किया है, साथ ही उन्होंने मयनाकया है, साथ हा उन्हाने रहा जिसमे जैन धर्म की प्रवृत्ति प्रायः निरन्तर बनी रही। अहिच्छत्रा के दुर्ग एव प्राचीर के भग्नावशेषों, कुण्डो, नावशेषा, कुण्डो, गुप्त सम्राट समुद्र गुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति से प्रकट है कपो, वानस्पतिक महोषधियो; खनिजो, धरणेन्द्र पद्मावती कि चौथी शती ई. के पूर्वार्द्ध में अहिच्छत्रा का राजा समन्वित पार्व-जिनालय, स्तूपो, अन्य जनार्जन देवालयो अच्यत नाग था। तदनन्तर गुप्तों आदि के सामन्तों के आदि का भी विस्तृत वर्णन किया है। १७वी शती ई० रूप मे अहिच्चत्रा पर नागवशी राजे राज्य करते रहे । के पूर्वार्द्ध मे (ल. १६३० ई० में) पं. बनारसीदासजी ने यवन भगोलवेत्ता टालेमी (२री शती ई०) की 'आदिमुद्रा' अहिच्छत्रा की यात्रा की थी, और १७८४ ई० मे कवि तथा चीनी यात्री युवान बाग (७वी शती ई०) की आसाराम ने क्षेत्र पर ही 'अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ स्तोत्र' 'ओहिचितालो' का समीकरण इसो अहिच्छत्रा से किया (भाषा) की रचना की थी। प्राकृत निर्वाण काण्ड के गया है और महाभारत में उल्लिखित उत्तर पांचाल राज्य अतिशय क्षेत्र काण्ड मे भी 'महुराए अहिछत्ते वीरं पास को राजधानी अहिच्छत्रा का अभिप्राय भी इसी स्थान से तहेव वदामि' पाठ द्वारा भगवान पार्श्वनाथ के साथ है। कूरु राज्य (हस्तिनापुर) के उत्तर में, गगा के पार अहिच्छत्रा का सम्बन्ध सूचित किया है। फैला हुआ हिमालय की तराई का विस्तृत अरण्य कुरुइस अहिच्छत्रा की पहचान, गत लगभग डेढ़ सौ वर्षों जांगल क्षेत्र कहलाया तथा उसके पूर्वी भाग मे उत्तर में विभिन्न देशी-विदेशी विद्वानों ने, ऐतिहासिक, साहि- पांचाल राज्य था, जिसकी राजधानी यह पांचालपुरी या त्यिक, पुरातात्विक, शिलालेखीय, मुद्गल शास्त्रीय आदि अहिच्छत्रा थी । ऐसा प्रतीत होता है कि सातवी शती ई० विविध पुष्ट साक्ष्यों के प्राधार पर वर्तमान उत्तर प्रदेश के आसपास अहिच्छत्रा की राज्यसत्ता समाप्त हो गई, राज्य के बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित राम- परन्तु नगर व उसका महत्त्व हो गया, परन्तु नगर ब नगर (या राम नगर किला) नामक कस्बे के बाहर घने उसका महत्त्व कम से कम ११वी शती पर्यन्त बनः रहा । बन में फैले एक प्राचीन दुर्ग के अवशेषों एवं टीलों आदि यहां से प्राप्त अन्तिम शिलालेख १००४ ई० का है और से की है। कई पुरातात्विक सर्वेक्षणों एवं उत्खननों के प्रायः उसी काल में शायद इसी अहिच्छत्रा में महाकवि फलस्वरूप यहां से विविध एवं विपुल सामग्री प्राप्त हुई वाग्भट्ट ने अपने 'नेमि-निर्वाण' काव्य की रचना की थी। है। लगभग दूसरों शती ई. की एक यक्ष मूर्ति पर, जो तदुपरान्त यह नगर विघटित होता तथा बन खण्ड में

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