Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 135
________________ 'नीतिवाक्यामृत' में राजकोष की विवेचना २५ मादि से बड़ा होने पर भी यदि दरिद्र है तो उसका बड़प्पन महान अनर्थ होगा। उसका राष्ट्र और कोष सभी कुछ व्यर्थ है क्योंकि उससे कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। नष्ट हो जाएगा। इसके साथ ही सोमदेव ने उन उपायों अतः नैतिक उपायों द्वारा धन का संग्रह करना महत्त्वपूर्ण का भी उल्लेख किया है, जिनके द्वारा उन राज्याधिबतलाया गया है। कारियों से उत्कोच की धन राशि पुनः प्राप्त हो सकती रिक्त राजकोष की पूर्ति के उपाय है। इसका सर्व प्रमुख उपाय यही है कि राज्याधिकारियों आचार्य सोमदेव ने रिक्तराजकोष की पूर्ति के उपायों पर पूर्ण नियन्त्रण रखा जाए, जिससे कि वे प्रजा से पर प्री प्रकाश डाला है। उनके अनुसार राजकोष को उत्कोच लेने का साहस ही न कर सकें। यदि नियंत्रण पूर्ति के निम्नलिखित उपाय हैं . रखने पर भी उन्होंने इस अनुचित रीति से धन संग्रह कर (१) ब्राह्मण और व्यापारियों से उनके द्वारा संचित लिया है तो उस धन को राजा विभिन्न उपायों से ग्रहण किए गए धन मे से क्रमशः धर्मानुष्ठान, यज्ञानुष्ठान और कर ले। कोटम्बिक पालन के अतिरिक्त जो धनराशि शेष बचे उसे अधिकारी लोग दुष्टवण के समान बिना कठोर दण्ड लेकर राजा को अपनी कोष-वृद्धि करनी चाहिए। दिए घर में उत्कोच द्वारा संचित किया हुआ धन आसानी (२) घनाढ्य पुरुष, सन्तान-विहीन धनी व्यक्ति विध- से देने को प्रस्तुत नही होते। उन्हें बार-बार उच्च पदों से वाओं का समूह और कापालिक-पाखण्डी लोगों के धन साधारण पदों पर नियुक्त करके भयभीत करना चाहिए। पर कर लगाकर उनको सम्पत्ति का कुछ अंश लेकर अपने अपनी अवनति से घबराकर वे उत्कोच का धन स्वामी को कोष की वृद्धि करे। देने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं । जिस प्रकार वस्तु को (३) सम्पत्तशाली देशवासियों की प्रचुर धन राशि बार-बार प्रस्तर पर पटकने से साफ किया जाता है उसी का विभाजन करके उनके भली-भांति निर्वाह योग्य धन प्रकार अधिकारियों को उनके अपराध सिद्ध होने पर छोड़कर उनसे प्रार्थना पूर्वक धन ग्रहण करके राजा को बारम्बार दण्डित करने से वे उत्कोच का धन राजा को अपने कोष की वृद्धि करनी चाहिए। सौप देते हैं । अधिकारियों में आपसी फट होने से भी (४) अचल समत्तिशाली, मन्त्री, पुरोहित और अधी- राजा के कोष की वृद्धि होती है । इसका तात्पर्य यह है नस्थ सामन्तो से अनुनय विनय करके घर जाकर उनसे कि अधिकारी वर्ग आपस में फूट के कारण एक दूसरे का वन याचना करनी चाहिए। अपराध राजा के सम्मुख प्रकट कर देते हैं, जिसके कारण इस प्रकार उक्त साधनों से राजा को अपने रिक्त उत्कोच आदि से संचित किया हुआ घन अधिकारी वर्ग से राज कोष की वृद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए। राजा को सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार राजा को सदैव इस कार्य में प्रयत्नशील रहना चाहिए। इन समस्त साधनो से राजकोष की वृद्धि की जाती थी। कोष ही राज्य की प्राणशक्ति है और उसके अभाव में वह आचार्य सोमदेव ने अधिकारियों की सम्पत्ति को राजाओं नष्ट हो जाता है। का द्वितीय कोष बतलाया है जो कि यथार्थ ही है। उत्कोच लेने वाले राज्याधिकारियों से मापत्तिकाल में राजा अधिकारियों से प्रार्थनापूर्वक धन धन प्राप्त करना प्राप्त कर सकता है ऐसा आचार्य का मत है। इसी आचार्य सोमदेव ने उत्कोच लेने वाले राज्पाधिका- कारण अधिकारियो की सम्पत्ति को राजाओं का द्वितीय रियो की घोर निन्दा की है और उनसे राजा को सावधान कोष बतलाया गया है। रहने का परामर्श दिया है। आचार्य का मत है कि राजा उपरोक्त विवरण में यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जाती को उन लोगों पर कठोर नियत्रण रखना चाहिए और है कि आचार्य सोमदेव सूरि केवल एक धर्माचर्य उच्चउनके साथ कभी नहीं मिलना चाहिए । यदि राजा भी कोटि के दार्शनिक, अलौकिक तार्किक, विभिन्न विद्याओं उनमें धन के लोभ से साझीदार हो जाएगा तो इससे के ज्ञाता एवं उद्भट विद्वान ही नहीं थे, अपितु वे उच्च

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