Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 142
________________ १२, १६, कि.४ बनेकान्त आवागमन कैसा, जीना-मरना कैसा ? स्वभाव तो न कभी रुपादेयो ह्यात्मा ।' (अमृतचन्द्र) जीता है और न कभी मरता है-सदा एक रूप ही रहता -जीवादि वाह्य तत्त्व हेय हैं, इस आत्मा को मात्मा है। स्वभाव में अन्य पर्याय का विकल्प ही नही होता। ही उपादेय है। यह आत्मा कर्म की उपाधि से पैदा होने व्यवहार में जिसे हम जीना-मरना कहते हैं वह सर्वथा पर- वाले गुण पर्यायों से भिन्न है। पर-द्रव्य होने से जीव आदि आश्रित है, अशुद्ध अवस्था का द्योतक है और वह अन्य ही सप्त तत्त्व मात्र उपादेय नहीं हैं।'....."प्रखर ज्ञानी परम किन्हीं कारणों से होता है। और इसीलिए आचार्यों ने भी जिन-योगीश्वरो के द्वारा आत्मा ही ग्राह्य है। जीवन-मरण का आधार कर्मोदयादि को बतलाया है। स्वामी अकलंकदेव जीव के स्वरूप का विश्लेषण करते संसारी जीवो में कर्मोदय से प्राण होते हैं और प्राणों के हुए कहते हैं-'औपमिकादि भाव पर्यायो जीवः पर्याधारण-विसर्जन को जीवन-मरण की संज्ञा दी गई है। यादेशात् ।' राजवा० १७१३ तथा 'ओपशमिकादि भाव 'जीव' शब्द भी इसी प्रक्रिया में फलित हुआ है और साधनश्च व्यवहारतः ।'-११७९ अर्थात् -पर्यायार्थिक आचार्यों ने भी 'माउपमाणं जीविदं णाम' ऐसा-कहा है। नय से औपशमिकादि भाव रूप जीव है । व्यवहार नय से पिछले दिनों हमने मान्य-आगम धवला का उद्धरण औपशमिकादि भावों से जीव (स्वरूप लाभ करता) है। देते हुए लिखा था कि 'सिद्ध' जीव नही हैं, जीवित पूर्व सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य विरचित गो. जी. हैं । वह कथन प्राणों की औदयिक भावो को दृष्टि से था कां० की जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका में कहा है-- और युक्त-युक्त तथा पूर्वाचार्य श्री कुन्दकुन्द समत था। 'कर्मोपाधि सापेक्षज्ञानदर्शनोपयोग चैतन्य प्राणेन जीवतीति हम कुन्दकुन्दाम्नायी हैं और तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता श्री जीवः ।'-२२२१०८ उमास्वामी महाराज, उसी परम्परा के उत्तरवर्ती आचार्य कर्मोपाधि की अपेक्षा सहित ज्ञानवर्शन उपयोग रूप हैं और धवलाकार आचार्य भी इसी परम्परा के हैं । सूक्ष्म चैतन्य प्राणों द्वारा जीने वाला जीव है। दष्टि से देखें तो सभी का मन्तव्य एक है और सभी ने स्मरण रखना चाहिए कि जीवन कर्मोपाधि सहित मुक्त आत्माओं को जीव सज्ञा से बाहर रखा है। चेतन का व्यापार है और वह प्राणों पर आधारित है 'जीव' संशा केवल जीवन-मरण-ससार अवस्था तक ही तथा प्राण आयुकाल-पर्यन्त विभिन्न कर्माश्रित है । प्राणों सीमित रखी है। सभी ने आत्मा के चेतन गुण को के सम्बन्ध में जीवकाण्ड मे बड़े खलासा रूप मे लिखा हैस्वीकार किया है। उन्होंने आत्मा अथवा चेतन को ससारी 'पचवि इन्दिय पाणा मण वच काएस तिणि बलपाणा । और मक्त या जीव और सिद्ध इन दो रूपो मे स्वीकार आणा पाणप्पाणा आउग पाणेण होति दस पाणा ॥१२॥ किया है। संसारी को जीव और मुक्त को सिद्ध (सशक) वीरियजुदमदिखउवसमुत्था णोइंदियेसु बला। बतलाया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तो जीवादि-तत्त्वमात्र देहृदये कायाणा बचीवला आउ आउदये ॥१३०॥ को भी हेय बतला, शुद्ध-आत्मा मात्र को उपादेय स्वीकार पांच इन्द्रिय प्राण है, मन वचन काय तीन बल प्राण किया है। यदि उन्हें सिद्धो में जीव-संज्ञा कचित् भी इष्ट हैं. श्वासोच्छवास प्राण हैं और एक आयु प्राण है। मनोहोती तो वे उसे कभी भी हेय न बतलाते । वे कहते हैं- बलप्राण और इन्द्रियप्राण वीर्यान्तराय कर्म और मतिज्ञाना 'जीवादि वहिंतच्चं हेयम्पादेयमप्पणो अप्पा । वरण कर्म के क्षयोपशमरूप अन्तरग कारण से उत्पन्न होते कम्मोपाधि समुभव गुणपज्जाएहि वदिरित्तो।' हैं। शरीरनाम कर्म के उदय से कायबल प्राण होता है। -नियमसार ३८ श्वासोच्छ्वास और शरीर नाम कर्म का उदय होने पर टीका -जीवादि सप्त तत्त्वजातं परद्रव्यत्त्वान्न पा वचन बल प्राण होता है, आयु कर्म के उदय से आयु प्राण देयम् । आत्मनः सहज-वैराग्यप्रसादशिखरंशिक्षामणे होता है । इसी गोम्मटसार जीव काण्ड मे यह भी लिखा परं द्रव्य पराङमुखम्य पंचेन्द्रिय-प्रसरवजितगात्र मात्र है कि सिद्धों में सभी ससारी उपाधियों व प्राणों का सर्वथा परिग्रहस्य, परमजिन योगीश्वरस्य, स्व-द्रव्य-निशितमते- अभाव है

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