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३०, वर्ष ३९, कि० ४
अनेकान्त
और शरणभूत हों फिर भी शुद्ध-वस्तु रूप में स्वयं मे शब्द होता है ऐसे ही दो आदमी होने पर बातें भी हो (जिम्मेदारी समझने-शिष्यगण को अनुशासन में रखने रूप सकती है । पर कुमारी कन्या के हाथ में पड़ा कड़ा अकेला विकल्प के कारण स्व-मंगलरूप और उत्तम नहीं, क्योकि होने से शब्द नहीं करता-शान्त रहता है । इसी प्रकार उनमें उक्त परिग्रह का अंश है। इसीलिए जो आचार्य उग्र- प्रकार यदि मुनि एकाकी, निर्जन स्थान में रहेगा वह शांत तप के इच्छुक हों, समाधि मे जाना चाहें उन्हें आदेश है रहने में सरलता से समर्थ होगा। कि आचार्य पद का भार (परिग्रह) किसी योग्य शिष्य को प्रसग है, अपने गुरु मुनि श्री विद्यानन्द जी के सौप दें और साधु रूप में विचरण करें तथाहि
साथ हमारे हरिद्वार भ्रमण का। जब हम हरिद्वार 'गच्छाणु पालणत्थं आहोइय अत्तगणसम भिक्ख । मे थे, हमने देखा-श्री गंगा जी का मुनि-मन सम निर्मल तो तम्मिगणविसगं अप्पकहाए कुणदि धीरो ॥'
जल, पर्वत से नीचे उतरता, कल-कल करता, नगर में -मूलाराधना-२७४, प्रवेश के बाद दूषित-मलिन होकर सड़को के नीचे बने -अपने गण के समान जिसके गण है ऐसा वह गटरो (नाले-नालियों) में बह रहा है। मानों वह नगरबालाचार्य गच्छ का पालन करने योग्य है ऐसा विचार प्रवेश को अपनी भूल मानकर शमिन्दा हो, अपना मुंह कर उस पर अपने गण को विसर्जित करते है, अर्थात् सड़क के नीचे बने गटरो में छिपा रहा हो। वायु की भी अपना पद छोडकर सम्पूर्ण गण को बालाचार्य को छोड़ यही स्थिति थी। जो वायु पर्वतो पर पहले कुछ समय पूर्व देते हैं।
शीतल, सुगन्धित और मन-भावन थी; वह नगर प्रवेश के यहां अपरिग्रही होने-एकाकी होने की बात है और बाद दूषित हो गई थी। हम सोचते रहे जब उन्मुक्त बहने इसी को ध्यान में रखकर आचार्य कुन्द कुन्द ने मुनियो के वाले स्वच्छ जल और चलती शुद्ध वायु की नगर प्रवेश में रहने योग्य स्थानो को चुना है। वे कहते हैं
ऐसी दशा है तब वे साधु धन्य है जो यहाँ निवास कर 'सुण्णहरे तरुहिढे उज्जाणे तह मसाणवासे वा, अपने भावो को अपने मे थामे हुए हो । फिर दिगम्बर सत गिरि-गृह गिरि-सिहरे वा भीमवणे अहव वसिमे वा।। तो धन्य है, त्याग-तप की पराकाष्ठा है, उन्हें अपने मे सवसासत्त तित्थ व च चइदालत्तयं वृत्तेहि, स्थिरता के लिए सर्वाधिक प्रयास करना पड़ता होगा। जिणभवण अह वेज्झ, जिणमग्गे जिणवरा विति ॥ धन्य है वे ! अन्यथा कहावत तो यह है कि
-कुन्दकुन्द, बोधपाहुड, ४२.४३ "काजल की कोठरी मे कैसो ही सयानों जाय । -मुनियो को शून्य घर मे अथवा वृक्ष के नीचे काजल की एक रेख लागे 4 लाग है।" उद्यान मे अथवा श्मशान भूमि मे अथवा पर्वतो की गुफा अभी कुछ दिन पूर्व हमने धर्म-संरक्षणी भा० दि० जैन मे अथवा पर्वत के शिखर पर अथवा भयकर वन मे महासभा के मुख-पत्र जैन गजट मे सम्पादक का लेख अथवा वसतिका में रहना चाहिए । ये सभी स्थान स्वाधीन 'शत-शत बार नमन' पला । हम चौक पडे । सभी जानते है। जो अपने आधीन हो ऐसे तीर्थ, व चैत्यालय और है कि महासभा धर्म की यथास्थिति रखने मे सदा कट्टर उक्त स्थानो के साथ-साथ जिन-भवन को जिनेन्द्रदेव उत्तम और मुनि-भक्त रही है : वह मुनियो मे कमजोरी बताने मानते हैं।
मे सदा उपगृहन अंग का पालन करती रही है। पर लेख उक्त विधान अपरिग्रहपोषक, एकान्त और स्वाधी- से ऐसा लगा कि इस परिग्रह को लेकर आज वह भी नता संरक्षण की दृष्टि से है क्योकि जन-सकुल स्थान मे चिन्तित दिखती है। आत्मध्यान भी नही हो पाता । किसी ने कहा भी है
तथाहिवासे वहना कलहो भवेद् वार्ता द्वयोरपि ।
"आज साधुओ मे मठ-मन्दिर-पाश्रम बनाने की एक एव चरेत्तस्मात्कुमार्या इव ककणम् ॥ प्रवृत्ति बढ़ रही है। उनका ममत्व भाव इन संस्थाओं के -सुहागिन के हाथों मे अनेक चूड़ियां होती है जिससे प्रति इतना गहरा है कि वर्ष का अधिकांश समय उनका