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भगवती आराधना में तप का स्वरूप
स्वाध्याय का माहात्म्य-स्वाध्याय तप को सभी पर कदाचित् भी वियोग न हो, इस प्रकार चिन्तन करना तपों से विशेष बताते हुए कहा गया है कि सर्वज्ञ के द्वारा इष्टवियोग आत ध्यान है । क्षुधा, तृषा आदि परिषह के उपदिष्ट बाह्य और आभ्यन्तर रूप बारह प्रकार के आने पर उनको दूर करने के लिए चिन्तन करना तीसरा तपों में स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है और न आर्त ध्यान है। इस लोक मे पुत्रादि की प्राप्ति और परहोगा। जो मुनि विनय से युक्त होकर स्वाध्याय करते है लोक में देवादि होकर मुझे स्त्री, वस्त्रादि सभी प्राप्त हो वे उस समय पचेन्द्रियो के विषय व्यापार से रहित हो जाएंगे। इस प्रकार का चिन्तन करना चौथा निदान जाते हैं और शास्त्र का अध्ययन करने, चिन्तन करने में नामक आतं ध्यान है। एकाग्रचित्त वाले हो जाते है। स्वाध्याय भावना से मुनि
रौद्र ध्यान-कषाययुक्त रौद्र ध्यान भी वोरी, झूठ, की सभी गप्तिया भावित होती है और गुप्तिया की भावना हिंसा का रक्षण तथा छह आवश्यको के भेद से चार प्रकार से मरते समय रत्नत्रय रूप परिणामों की आराधना मे
का होता है। परद्रव्य के हरण करने में तत्पर होना चोरी तत्पर होती है । सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म
नामक प्रथप रौद्र ध्यान है। दूसरो को पीड़ा देने वाले को लाखों, करोड़ो भवो मे नष्ट करता है उसी कर्म को
असत्य वचन बोलने मे यत्न करना झूठ नामक रोद्र ध्यान सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियो मे युक्त होकर क्षण भर मे नष्ट
है। पशु, पुत्रादि के रक्षण के विषय मे चोर, दायाद कर देता है। स्वाध्याय से मुमुक्षु की तर्कशील बुद्धि का अर्थात भागीदार आदि के मारने मे प्रयत्न करना तीसरा उत्कर्ष होता है । परमागम की बुद्धि का पोषण होता है। रोद्र ध्यान है। छह प्रकार के जीवो (पृथ्वी, जल, अग्नि, मन, इन्द्रिया और सज्ञा अर्थात् भय, मैथुन और परिग्रह वाय. वनस्पति और प्रस) के मारने के आरम्भ मे अभिकी अभिलाषा का निरोध होता है । सन्देह का छेदन होता प्राय रखना चौथा रौद्र ध्यान है। है, क्रोधादि कषायो का भेदन होता है, प्रतिदिन तप में
धर्म ध्यान-आर्जव, लघुता, मार्दव, उपदेश और
शर्म ध्यान-आर्जव ता. मात वृद्धि होती है, संवेग भाव बढ़ता है । परिणाम प्रशस्त होते
जिनागम में स्वाभाविक रूचि ये धर्म ध्यान के लक्षण है। है समस्त अतीचार दूर होते है । अन्यवादियो का भय नष्ट
एकाग्रतापूर्वक मन को रोक कर धर्म मे लीन होना ही होता है तथा मुमुक्ष जिनागम की भावना करने मे समर्थ
धर्मध्यान है। यह अज्ञिाविचय, अपायविचय, विपाकहोता है।
विचय और संस्थान विचय के भेद से चार प्रकार का ध्यान-राग-द्वेष और मिथ्यात्व से अछूते, वस्तु के होता है। यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करने वाले और अन्य विषयो में आज्ञाविचय-पांच आस्तिकाय, छह जीवनिकाय संचार न करने वाले ज्ञान को ध्यान कहते है । वस्तु के और कालद्रव्य तथा अन्य कर्म बन्ध मोक्ष आदि को जो यथार्थ स्वरूप का जो ज्ञान निश्चल होता है वही ध्यान सर्वज्ञ की आज्ञा से गम्य है। आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान तत्त्वार्थ सत्र में उत्तम सहनन वाले के एकाग्रचिन्तानिरोध के द्वारा विचारा जाता है। अच्छे उपटेहरा को ध्यान कहा है। यह आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्मध्यान अपनी नतमस्ट होने से और ना और शुक्ल ध्यान के भेद से चार प्रकार का है। इनमे यूक्ति और उदाहरण की गति न हो तब ऐसी अवस्था में प्रथम दो ध्यान अप्रशस्त और शेष दो ध्यान प्रशस्त हैं। सर्वज्ञ के द्वारा कहे गए आगम को प्रमाण मानकर गहन
पदार्थ का श्रद्धान करना कि 'यह ऐसा ही है' आज्ञाप्रार्त ध्यान-कषाययुक्त आर्तध्यान के चार भेद
विचय है। हैं-अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, परीषह और निदान। ज्वर, शूल, शत्रु आदि अनिष्ट से मेरा वियोग कब होगा अपाय विचय-जिन भगवान के द्वारा कथित उपइस प्रकार से चिन्तन करना अनिष्ट सयोग नामक आर्त देश के अनुसार कल्याण को प्राप्त कराने वाले उपाय का ध्यान है। पुत्र-पुत्री आदि इष्टजनों के साथ सयोग होने विचार अथवा जीवों के शुभ और अशुभ कर्म विषयक