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२०, वर्ष ३६ कि.४
का बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन और गुणों को साधुओं पर मुक्ति मार्ग का घात करने वाली कोई भी अनुमोदना ये सब विनय के गुण हैं।
विपत्ति आने पर, उसे अपने ही ऊपर आई हुई जानकर
शारीरिक चेष्टा से अथवा सयम के अविरुद्ध औषधि, वेयावत्य-सोने बैठने के स्थान और उपकरणों की
आहारादि द्वारा मान्त करता है अथवा मिथ्यात्वादिप्रति लेखना करना, योग्य आहार, योग्य औषध का देना,
विष को प्रभावशाली शिक्षा के द्वारा दूर करता है वह स्वाध्याय कराना, अशक्त मुनि के शरीर का शोधन
महात्मा इन्द्र, अहमिन्द्र तो क्या तीर्थकर पद के योग्य करना तथा एक करवट से दूसरी करवट लिटाना आदि
होता है । इससे एकाग्रचिन्ता, ध्यान, सनाथता, ग्लानि का उपकार वैयावृत्य है । मार्ग के श्रम से थकित, चोरों हिंस्र
अभाव, साधर्मीवात्सल्य आदि साधे जाते हैं। जन्तुओं, नदी रोधकों और भारी रोग से जो मुनि पीड़ित है तथा दुर्भिक्ष में फसे है, ऐसे मुनियों को धर्य आदि देना
स्वाध्याय-ज्ञानावरणादि कर्मों के विनाश के लिए तथा उनका संरक्षण करना वैयावृत्य कहा जाता है ।
तत्पर मुमुक्षु को नित्य स्त्र ध्याय करना चाहिए । क्योकि आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गुण, कुल, संघ,
' 'स्व' अर्थात् आत्मा के लिए हितकारक परमागम के साधु और मनोज्ञ के भेद से वैयावृत्य दस प्रकार का है।
'अध्याय' अर्थात् अध्ययन को स्वाध्याय कहते हैं अथवा आचार्य आदि इन दस प्रकार के मुनियों के क्लेश और
'सु' अर्थात् सम्यक् श्रुत के अध्ययन को स्वाध्याय कहते संक्लेश को दूर करने में जो साधु मन, वचन और काय
हैं। इस प्रकार स्वाध्याय की दो निरुक्तियां है। वाचना, का व्यापार करता है, वह वैयावत्य है और उसे करना चाहिए । वैयावृत्य के गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति,
प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के भेद से पात्रलाभ, सन्धान, तप, धर्म तीर्थ की परम्परा का विच्छेद
स्वाध्याय के पांच भेद है । निर्दोष ग्रन्थ के पढ़ने को न होना तथा समाधि आदि अनेक गुण है । वैयावृत्य से
वाचना कहते हैं । सन्देह निवारण के लिए अथवा निश्चित सर्वश की आज्ञा का पालन, आज्ञा का सयम, वैयावृत्य ।
को दृढ़ करने के लिए सूत्र और अर्थ के विषय में पूछना करने वाले का उपकार, निर्दोष रत्नत्रय का दान, संयम
प्रश्न है । जाने हुए अर्थ का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। में सहायता, ग्लानि का विनाश, धर्म की प्रभावना तथा
कण्ठस्थ करना आम्नाय है । आक्षेपणी, विक्षेपणी, सवेजनी कार्य का निर्वाह होता है।
और निवेदनी इन चार कथाप्रो के करने को धर्मोपदेश निन्दनीय वैयावत्य--अपने बल और वीर्य को न
कहते है । मूलाचार में स्वाध्याय के परिवर्तन, वाचना,
पृच्छना, अनुप्रेक्षा, और धर्मकथा भेद कहे हैं । अन्यत्र छिपाने वाला जो मुनि समर्थ होते हुए भी जिन भगवान
वाचना आदि स्वाध्याय के सम्बन्ध में कहा है-विनय के द्वारा कथित क्रमानुसार यदि वयावृत्य को नही करता
आदि गुणों से युक्त पान को शुद्ध प्रन्थ और अर्थ प्रदान तब वह मुनि धर्म से बहिष्कृत होता है । वैयावृत्य न करने
करना वाचना स्वाध्याय है । प्रय और अर्थ के विषय मे से तीर्थंकरों को आज्ञा का भंग, श्रुत में कथित धर्म का
'क्या ऐसा है या नहीं' इस सन्देह के निवारण के लिए नाश, आचार का लोप तथा आत्मा, साधु वर्ग और प्रवचन
अथवा 'ऐसा ही है' इस प्रकार के निश्चित को दृढ़ करने का त्याग होता है।
के लिए प्रश्न करना पृच्छना है । अध्ययन की प्रवृत्ति मे वयावृत्य का फल-यावृत्य से साधु गुणपरिणा- होने के कारण प्रश्न को भी अध्ययन कहा जाता है अतः मादि कारणों के द्वारा तीनों लोकों को कम्पित करने वाले वह भी स्वाध्याय है। जाने हुए या निश्चित हुए अर्थ का तीर्थकर नामक पुण्यकर्म का बन्ध करता है । वयावृत्य से मन से बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है इसमें भी अपना और दूसरों दोनों का ही उपकार होता है । अन्यत्र स्वाध्याय का लक्षण पाया जाता है ' ग्रन्थ के शुद्धतापूर्वक कहा है कि जिस साधु या धावक का हृदय मुक्ति में पुन: पुनः उच्चारण को आम्नाय कहते हैं । देव वन्दना के तत्पर साधुओं के गुणो मे आसक्त होने के कारण उन साथ मंगल पाठपूर्वक धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश है।