Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 128
________________ गतांक से आगे: भगवती प्राराधना में तप का स्वरूप 0 कु.निशा, विजनौर परिहार-आगम मे कथित विधान के अनुसार आदि का नाम न छिपाकर तथा जिस आगम का अध्ययन दिवस आदि के विभाग से अपराधी मुनि को संघ से दूर करना है उसके लिए विशेष ता अपनाते हुए, आगम में कर देना परिहार प्रायश्चित है। यह निजगुणानुपस्थान, तथा उसके ज्ञाताओं में भक्ति रखते हुए, स्वाध्याय के सपरगणोपस्थान और पारंचिक के भेद से तीन प्रकारका है। लिए शास्त्रविहित काल में, पीछी सहित हाथ जोड़कर, व्युत्सर्ग-मलोत्सर्ग आदि में अतीचार लगने पर एकाग्रचित्त से मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जो युक्तिप्रशस्त ध्यान का अवलम्बन लेकर अन्तर्महतं आदिकाल- पूर्वक आगम का अध्ययन, चिन्तन, व्याख्यान आदि किया पर्यन्त कायोत्सर्ग पूर्वक अर्थात् शरीर से ममत्व त्यागकर जाता है वह ज्ञानविनय है, वह आठ प्रकार का है। खड़े रहना व्युत्सर्ग प्रायश्चित है। दर्शन विनय-उपगृहन आदि तथा भक्ति आदि श्रयान---जिसने अपना धर्म त्यागकर मिथ्यात्व गणों को धारण करना और शका आदि का त्याग करना को स्वीकार कर लिया है, उसे पुन: दीक्षा देने को श्रद्धान ही दर्शन विनय है । एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि प्रायश्चित कहते हैं । उसको उपस्थान प्रायश्चित भी कहा भक्ति, पूजा, वर्णजनन और अवर्णवाद का नाश करना जाता है। आसादना को दूर करना दर्शन विनय है । अनगार धर्माविनय-विनयतीति विनयः "विनय' वि उपसर्गपूर्वक मृत में दर्शन विनय को इस प्रकार कहा है-का, कांक्षा 'नी नयने' धातु से बना है। यह विनय का निरुक्त्यर्थ है। आदि अविचारों को दूर करना दर्शन विनय है। इसी विनयति के दो अर्थ हैं-दूर करना और विशेष रूप से प्रकार उप-गूहन , स्थितिकरण आदि गुणों से युक्त करना प्राप्त करना । अर्थात् जो अप्रशस्त कर्मों को दूर करती है भी दर्शन विनय है। नथा अर्हन्त आदि के गुणों मे अनुरागरूप और विशेष रूप से स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराती है शक्तिपूजा, विद्वानों की सभा में युक्ति बल से जिन शासन वह विनय है। इसी प्रकार क्रोधादि कपायो और स्पर्शन को यशस्वी बनाना और उस पर लगे मिथ्या दोषों को आदि इन्द्रियों का सर्वथा निरोध करने को या शास्त्र- दूर करना, अवज्ञा भाव दूर करके आदर उत्पन्न करना विहित कर्म में प्रवृत्ति करने को या सम्यग्दर्शन आदि और ये सभी दर्शन विनय हैं। उनसे सम्पन्न साधकों पर अनुग्रह करने वाले राजाओ का चारित्र विनय-इन्द्रिय और कषाय रूप से आत्मा यथायोग्य उपकार करने को विनय कहते है । ज्ञान विनय, की परिणित न होना गुप्तियां और समितियाँ संक्षेप रूप से दर्शन विनय, चारित्र विनय और तप विनय और उपचार पालना चारित्र विनय है। एक अन्य स्थान पर कहा गया विनय के भेद से विनय पांच प्रकार की होती है। तत्त्वार्थ है-कर्मों के ग्रहण मे निमित्त क्रियाओं को त्यागना ही शास्त्र के विचारकों ने दर्शन ज्ञान, चारित्र और उपचार चारित्र विनय है । इन्द्रियों के रुचिकर और अरुचिकर ये चार भेद विनय के कहे है। विषयों मे राग-द्वेष को त्यागकर, उत्पन्न हुए क्रोध, मान, ज्ञान विनय-काल, विनय, उपधान, बहुमान, माया और लोभ का छेदन करके, समितियो मे उत्साह निह्नव, व्यञ्जन शुद्धि; अर्थशुद्धि उभय शुद्धि ये ज्ञान करके, शुभ मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों में आदर रखते सम्बन्धित विनय आठ प्रकार की हैं । सागार धर्मामृत में हुए तथा व्रतों की सामान्य और विशेष भावनाओ के द्वारा लिखा है-शब्द, अर्थ और दोनो की शुद्धतापूर्वक गुरु अहिंसा आदि व्रतों को निर्मल करता हुआ पुण्यात्मा साधु

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