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परमेष्ठी का पद भी परिग्रह के बिना अर्थात् अपरिग्रह में ही होता है। कोई भी परिग्रही, परमेष्ठी पद में नहीं पहुंचा और कोई भी परिग्रही अन्य चार पापों का त्याग भी पूर्ण न कर सका। फिर भी आश्चर्य है कि लोग अहिंसा को ही बढ़ावा क्यों दे रहे हैं और अहिंसा के मूल अरिग्रह की उपेक्षा कर रहे हैं ?
आए दिन घटनाएं घट रही हैं। एक जैनी ने किमी परिवार के आठ सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया। अमुक किसी अन्य ने मंदिर से नामों की चोरी कर भी और किसी ने किमी राजकीय कार्यालय में जाकर नहीं के स्टाफ के साथ अभद्र व्यवहार किया। इन सभी काण्डों की जट में हिमादि की भावनाएँ प्रमुख नहीं थीं अपितु ये सब घटनाएँ को लेकर घटित हुईं। परिग्रह को लालसा ने हत्या कराई, परिग्रह की लालसा ने चोरी कराई और तीव्र राग, तीव्ररुषाय व मुरूपी परिषद ने ही अभद्र व्यवहार की प्रेरणा दी।
जैन आगमों में जहां जो और जितना भी उपदेश है, सभी मोहरूपी परियत के स्थान पर विशेष बल देने के प्रसंग में है और मोहनीय कर्म आठों कर्मों का राजा है । इसी कर्म के उदय से पार होते हैं। मोह को हम भी करते हैं और परिवर है। हम मोह की महिमा विचित्र है। यदि किसी का भाई, भतीजा या बेटा कुव्यमनी है और वह संकट में है तो मोह ही संरक्षकों को उसकी बुराइयों को छिपाकर उसकी सहायता और उपचार में लाखों-लाखों द्रव्य व्यय करने को मजबूर करता है कही-कहीं ऐसी कृध्यमनी पेशकारी और अबहेलना करने वाली सभ्नान को भी माता-पिता आदि छाती से लगाकर रखते हैं और स्वयं मोन है। जब कि धार्मिक जगन की दृष्टि में वे सभी त्याज्य होते हैं। भला, पापी में अपनापन कैसे न्याय हो सकता है ? तत्वज्ञ को दृष्टि में जो बुरा है वह बुरा ही है- हेय है। यदि मानव ऐसा दृढ हो और ऐसे में मोह-परिग्रह को जड-मूल से काटने का यत्न करे तो वह शेष चारों पापों का सहज ही परिहार कर सकता है पर दिक्कत यह है कि इस मोही ने परिग्रह की चाह में अहिंसा आदि को संग्रह का मार्ग बना रखा है। आज अहिंसा का नारा देने वाला कहीं
अधिक परिग्रही भी हो सकता है - अपेक्षाकृत जन साधारण के आज अधिक परिवती ( यदि वह मोही है तो) दवा के नाम पर अधिक दानी बनकर लोगों में यह लड़ने और दूसरों पर अपनी थोथी निःस्वार्थता की धाक जमाने की कोशिश करे तो भी आश्चर्य नहीं। ऐसा मनुष्य अवसर बिना चुके अनकल समय आने पर अपने धन और यश के भण्डार भरता रहे तो भी कोई बड़ी बात नहीं ।
दानी जो पहिया के मिस किमी अनुष्ठान वा किसी निर्माण आदि के निमित माहवारों का दान देने हैं। क्या वास्तव में वे सभी स्वद्रव्य का सही मायनों में उत्म करते हैं? क्या सभी दान की परिभाषा जानते हैं ? या सभी को धर्म से ज्यादा लगाव होता है ? नहीं। हां, कुछ लोग जानने वाले होते होंगे। अधिकांश में कोई देखादेखी कोई लिहाज या शर्मा-शर्मी ही देने होंगे। उनमें भी अधिकांश यश के लिए पैसा देने हों या कोई अकाम-निर्जरा जैसी करते हों तब भी आश्चर्य नहीं। ये सभी चिह्न परियह के हैं और इनसे पर वस्तु के प्रति अपनत्व ही पुष्ट होता है छूटता कुछ नहीं और जब तक पर से छुटकारा नहीं होता तब तक जिन या जैन नही बना जाता। फलत: जैन बनने के लिए हमें मन-वचन काया मे सही मायनों में परिग्रह का त्याग करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक कोई भी व्रत नहीं पल सकता और ना ही जैन सुरक्षित रह सकता है यह निश्चय समझिए । ३. कुन्दकुन्द भारती एक प्रभ्युदय :
जैन मुनि और जैन धारकों में आचार्य कुन्दकुन्द का नाम बडी आदर-भक्ति से लिया जाता है और शास्त्र प्रवचन से पूर्व सभी उन्हें मंगल रूप में स्मरण करते हैं। आज दिगम्बरों में धर्म-विषयक जो और जितना ज्ञान, आचार विचार है वह सब भी कुन्दकुन्द आम्नाय की देन कहा जाता है। शास्त्र पढ़ने से पूर्व सभी लोग 'मंगलं कुन्दकुन्दाय' तथा 'कुन्दकुन्वाम्नायी विरचित' आदि बोलते हैं। आज भी कुन्दकुन्दाचार्यकृत शास्त्रों के अपूर्व भण्डार हैं केवल उन्हें पढ़ने और तदनुरूप आचरण करने की आवश्यकता है; बिना इनके लोग भटक रहे हैं। हम आशा करें कि कुन्दकुन्द भारती इन प्रसंगों की भटकन को दूर करेगी।
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