Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 100
________________ उक्त भाषान्तर से तो ऐसा प्रतिभासित होता है जैसे प्रस्तुत प्रसंग में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भाषान्तरकार की दृष्टि मल जैन सिद्धान्त को ओझन कर जैसे व्यवहार में आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञाओं को मरल अन्वय और शब्दार्थ पर ही केन्द्रित हो गई हो। वभाविक-कर्मोदयजन्य होते हुए भी जीव की स्वाभाविक स्मरण रहे-आगम का अर्थ करने की कुछ मीमाएं हैं। संज्ञाएं कह दिया गया है अथवा जैसे गति, इन्द्रिय, काय, जहाँ मुल सिद्धान्त का व्या घात होता हो, वहाँ दविड. योग आदि मार्गणाओं को जीव की कह दिया गया हैप्राणायाम करना पडता है और शब्द, अर्थ तथा फलितार्थ कोई भी संसारी जीव क्यों न हो सब में ये सब होना में पर्वापर मोनना पड़ता है तथा रोमा अन्वयार्थ करना स्वाभाविक हैं। और ये सब कथनी संसारी जीवों के लिए होता है जो सिद्धान्त का घात न करे। जबकि ऊपर के और संसारियों में है। वैसे ही आगम में करुणा को वभाभाषान्तर मे ममम्न जैन-मिद्धान्त का ही घात हो गया बिक होते हा भी कही-कहीं जीव का स्वभाव कह दिया है। यदि अर्जनों-मान्य वर की भांति जैन-मान्य पर. गया है। पर, यह सब मंमारी जीवों तक ही सीमित मात्मा में भी करुणा की कल्पना की गई तो हम में मन्देह व्यवहार है। वास्तव में तो करुणा मोहनीय के क्षयोपनहीं कि कालान्तर जैन-परमात्मा में भी जगकतत्व, शम मे और अकरुणा मोहगीय के उदय से होती है। यह कर्मफलदातृत्व और मुक्ति मे पनरावनिन्त्र के चक्कर में सब अपेक्षा-भाव के कारण हैं, जब कि शुद्ध-स्वभावी मक्त पड जागि । अन्यों की भांति वे भी करुणा-वश मब कुछ आत्माओं में अपेक्षा का सर्वथा अभाव है। यह भी स्मरण करने लगेंगे, आदि। रहे कि मूल-स्वभाव सदा पर-निरपेक्ष और सदाकालभावी लोकवानिक में शंका उठाई है कि मुक्त आत्मा करुणा होता है और विभाव पर-सापेक्ष और सीमित काल भावी पूर्वक जानते-देखते हैं तो उनके पुनः बन्ध होगा? आचार्य होता है और संमारी जीवों में ही होता है। कहते हैं कि उनके मर्व प्रास्रवों के श्रय होने से पुन: बन्ध ये हम इमलिए लिख रहे हैं कि पाठक कहीं धबला नहीं होता। यह भी सष्टीकरण देते हैं कि वीतराग में १३-५-५ पृष्ठ ३६२ पर आए व्याख्यान 'करुणाएजीव. स्नेह की पर्याय रूप करुणा की असंभावना है...। तथाहि- सहावस्स' से ऐसा न मान लें कि करुणा आत्मा और पर 'पुनः प्रवर्तनप्रसंगो जानतः पश्यतश्च कामप्यादिति मात्मा का स्वभाव है। यह उक्त कथन तो संमारी जीवों चेन्न, सर्वास्रव परिक्षयात । वीतरागे स्नेहपर्यायस्यकारुण्या- की मार्गणाओं के व्याख्यान प्रसंग में है और संसारी-जीवों संभवाद्भक्ति स्पृहादिवत् ।'-त० श्लो० वा० १०४. के लिए ही है मुक्तात्मा के लिए नही। ___इसी प्रसंग को राजवातिक में ऐसे उठाया गया है- प्रश्न होता है कि क्या जीव और आत्मा की परि'स्यादेतत्-व्यसनार्णवे निमग्नं जगदशेषं जानतः पश्यतश्च भाषा जुदा-जुदा है ? हां, वास्तव में जीव शब्द व्याप्य कारुण्यमुत्पद्यते ततश्च बन्ध इति; तन्न; कि कारणम? (मात्र संसारियों तक सीमित) है और आत्मा शब्द व्यापक सवस्रिवपरिक्षयात् । भक्ति स्नेहकृपा स्पृहादीनां रागवि. है। जाव-श पानी व है। जीव-शब्द कर्म-सत्ता की अपेक्षा मात्र तक सीमित है। कल्पत्वाद्वीतरागे न ते सन्ति इति ।' राज० वा० १०४५ जब तक जीवन है, आयु हैं, प्राण हैं तब तक इसे जीव यदि शंकाकार को ऐसी सम्भावना हो कि व्यसन कहने का व्यवहार है, पर मूल में तो वह आत्मा ही है । समुद्र में डबे समस्त जगत को जानते देखते हुए मुक्त जीवों जब इसका संसार से (आयु, प्राण, जीवन से) छुटकारा को करुणा उत्पन्न होगी और उससे उसे बध होगा? हो जाता है इसे शुद्वात्मा या परमात्मा' कहा जाता है। आचार्य समाधान करते हैं कि ऐसी बात नहीं है। (उनके न कही भी इसे परमात्मा के बजाय 'परम जीव' नाम से करुणा होती है और ना ही बंध होता है), क्योकि उनके संबोधित नहीं किया गया। यदि कही कर भी दिया गया सब आस्रवों का क्षय हो गया है, और भक्ति, स्नेह, कपा, हो तो उसे व्यवहार कथन ही समझना चाहिए और ऐमा स्पृहर आदि सब राग रूप विकल्प हैं और ये सभी विकल्प सब अभ्यास दशा से ही हुआ है। कहा भी है -'आउ वीतरागी में नहीं हैं। पमाणं जीविदं णाम' अर्थात् आयु के प्रमाण का नाम

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