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प्रात्मानुभवी परम्परित निर्ग्रन्थ प्राचार्यों का ग्रन्थ-कर्तृत्व
'दिव्य ध्वनि करि उपदेश हो है । ताके अनुसरि गणधरदेव अंग प्रकीर्णकरूप ग्रन्थ गूंथे हैं। बहुरि तिनके अनुसारि अन्य-अन्य आचार्यादिक नाना प्रकार ग्रन्थादिक की रचना करें है।'
'बहरि केतक कालताई थोरे अंगन के पाठी रहे (तिनने यह जानकर जो भविष्य काल में हम सारिखे भी ज्ञानी न रहेंगे, तातै ग्रन्थ रचना आरम्भ करी और द्वादशागानुकल प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानयोग के ग्रन्थ रचे) पीछे तिनका भी अभावभया । तब आचार्यादिकनिकरि तिनके अनुसारि बनाए ग्रन्थ वा ग्रन्थनि के अनुसारि बनाए ग्रन्थ तिनही की प्रवृत्ति रही।'
'प्रथम मूल उपदेश दाता तो तीर्थकर भए सो तो सर्वथा मोह के नाशत सर्व कषायनिकरि रहित ही हैं। बहरि ग्रन्थकर्ता गणधर वा आचार्य ने मोह का मन्द उदय करि सर्व बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह को त्यागि महामन्दकषायी भए है। तिनके तिस मंदकषायरि किंचित् शुभोपयोग ही की प्रवृत्ति पाइए है।'
'मूलग्रन्थ कर्ता तो गणधर देव है ते आप चार ज्ञानधारक है अर साक्षात् केवली का दिव्यध्वनि उपदेश सुन हैं ताका अतिशय करि सत्यार्थ ही भाष है। अर ताही के अनुसारि ग्रन्थ बनाव हैं। सो उन ग्रन्थनि विर्ष तो असत्यार्थपद कैसे गूथे जांय अर अन्य आचार्यादि ग्रन्थ बनाव हैं तो भी यथायोग्य मम्यग्यान के धारक हैं। बहुरि ते तिन मूल ग्रन्थनि की परम्परा करि ग्रन्थ बनाव है।'
'बहरि वक्ता का विशेष लक्षण ऐसा है जो याकै व्याकरण, न्यायादिक वा बड़े-बडे जैन शास्त्रनि का विशेष ज्ञान होय तो विशेषपने ताको वक्तापनो शो में । बहुरि ऐसा भी होय अर अध्यात्म-रमकरि यथार्थ अपने अनुभव जाके . न भया होय सो जिन धर्म का मर्म जाने नाही, पद्धतिकरि ही वक्ता होय है। अध्यात्म रसमय सांचा जिन धर्म का स्वरूप वाकरि कैसे प्रगट किया जाय । नाते आत्मज्ञानी होइ तो सांचा बक्सापनो होइ ।'
-मोक्षमार्ग प्रकाशक, पहिला अधिकार
(पृ० २६ का शेषाश) मानता हुआ घर आया । आते ही बन्दर बोला-स्वामिन् , आज्ञा दीजिए । सुकेतु बोला-अच्छा अब सबको ले जाकर मेरे उस नवीन नगर में ठहराओ। बात की बात मे उसने ऐसा ही कर दिखाया। और सूकेतु को उसकी स्त्री धारिणी महित राजभवन मे ले जाकर मिहामन पर बैठाया और फिर आज्ञा मागने लगा। तब मुकेतु ने कहा-गंगाजल लाकर धारिणी सहित मेरा राज्याभिषेक करके राज्यमुकुट पहनाओ। बन्दर ने वैमा ही किया और आज्ञा मागने लगा। सुकेतु बोला-नागदत्तादि सब लोगो को महल मकान देकर उनको अक्षय धनधान्यादि से पूर्ण कर दो। उसने तत्काल ही वैसा भी कर दिया, और फिर आज्ञा मांगी। तब सुकेतु ने खिसियाकर कहा, अच्छा मेरे राजमहल के आगे एक खंभा गाड़कर उसकी जड से एक साकल बांध उस साकल के सिरे पर एक कड़े मे अपना सिर फंसाकर जब तक मैं नही रोक, तब तक खभे के ऊपर चढ और नीचे उतर । बेचारे बन्दर ने इस आज्ञा के अनुमार दो-तीन दिन तक खभे पर वह कसरत की, परन्तु जब सुकेतु ने नहीं रोका, तब थककर वह वहा से भाग गया।
सकेत सेठ बहुत समय तक राज्य करके एक दिन अपने सिर में श्वेत बाल देखकर ससार से विरक्त हो गया। इसलिए वह अपने पुत्रको राज्य देकर राजा वसुपाल से अपने को छुड़ा अर्थात् आज्ञा ले मणिनागत्तादि बहत लोगों के साथ भीम भट्टारक के निकट दिगंबर मुनि हो गया और तपस्या करके मोक्ष को प्राप्त हुआ। धारिणी भी तपकर अच्युत स्वर्ग में देव हई। मणिनागदत्तादि यथायोग्य गतियों को प्राप्त हुए। सुकेतु के घर से निकलते ही वह देवमयी नगर लोप हो गया।
इस प्रकार एक बार के दान के फल से सुकेतु को देवदुर्लभ सुख प्राप्त हुए और अंत मे मोक्ष प्राप्त हुआ। इसलिये सब लोगों को दान-धर्म में तत्पर रहना चाहिए।