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वर्ष ३६, कि०३
पुत्र को ही दिया जा सकता है" । सैनिक प्रद्युम्न पर राम स्वयं वहां आते हैं परन्तु द्वार पर लेटे विप्ररूप धारी प्रहार करने को उद्यत होते हैं सब प्रद्युम्न विद्यावल से प्रद्युम्न को टस से मस नहीं कर पाते और आश्चर्य मे पड़ भील सेना तैयार करके सभी को परास्त कर उदधि का जाते हैं । हरण कर लेता है।" तथा विमान में आरूढ होने के इसी अवसर पर रुक्मिणी मे मातृत्व भाव जाग्रत पश्चात् अपने वास्तविक रूप में आ जाता है । नारद के होता है और प्रद्युम्न भी वास्तविक रूप में प्रकट होकर साथ द्वारका पहंचने पर प्रद्यम्न नगरोधाम में भानुकूमार माता को प्रणाम करता है। रुक्मिणी के यह करने पर कि को घोर्ड को व्यायाम करवाते देखता है तो एक मायामयो "कनकमाला धन्य है जिसने तेरी बालक्रीड़ाओं का दुर्लभ घोडा निर्मित करके स्वयं वृद्ध का वेश धारणकर, भानु- सुख प्राप्त किया।" प्रद्युम्न पुन: बालक बनकर बालकुमार के पास पहुंचता है। भानु जब उस अश्व पर सुलभ कोडाओं द्वारा मां को सुख प्रदान करतात . आरूढ होने का प्रयास करता है तो अश्व उसे विभिन्न परान्त वह रुक्मिणी को विपान में बैठाकर यादव सभा में प्रकार से प्रताडित करता है । प्रद्युम्न के हंसने पर भानु ऊपर पहुंच यदुराज कृष्ण को ललकारता है कि मैं उसे ही आरूढ होने को कहता है। वृद्ध वेषधारी प्रद्युम्न रुक्मिणी का हरण करके ले जा रहा है यदि किसी में आरूढ होने के लिए भानु का सहयोग मांगता है और शक्ति हो तो उसे छुडा ले" तब आकाशस्थित प्रद्युम्न से विद्याबल से अपने शरीर को इतना भारी कर लेता है कि नारायण कृष्ण का युद्ध होता है। उसे उठाना दुर्भर हो जाता है । अन्ततः वह स्वयं अश्वा- कृष्ण को सफलता नहीं मिलती तो वे निर्णायक बाह रूढ होतीव्रगति से सत्यभामा के उपवन पहुंच कर वाक- युद्ध को तत्पर होते हैं तभी नारद स्थल पर पहुंचकर पिता चातरी से माली को मर्ख बनाकर सारा उपवन उजाड पुत्र का परिचय करवाते हैं। दीर्घ अवधि के बाद पुत्र को देता है। तत्पश्चात् सत्यभामा के भवन में विप्र बनकर पाकर श्रीकृष्ण अत्यन्त हर्षित होते हैं। तदनन्तर प्रद्युम्न जाता है।" और वहां ब्राह्मणों के लिए जितना भी का उदधि," वैदी आदि सुन्दर कन्याओं से विवाह भोजन बनाया गया था अकेले ही खा जाता है और होता है । बहत काल तक सुखपूर्ण भोग-विलास का जीवन तत्काल ही वमन भी कर देता है. फिर क्षल्लक वेश व्यतीत करने के बाद तीर्थंकर नेमिनाथ से द्वारिका की धारण कर रुक्मिणी से प्राप्त 'मोदक' खाकर ही सन्तुष्ट विनाश की गाथा सुनकर प्रद्युम्न में वैराग्य भाव जागत होता है। उसी समय सत्यभामा का नाई पूर्व निश्चित हो जाता है । घोर तपस्या द्वारा समस्त घाति अघाति "शर्त" के अनुसार रुक्मिणी के केश लेने आता है, तो कर्मों का क्षय करके वह मोक्ष पद प्राप्त करता है। प्रद्युम्न उसे तिरष्कृत कर वापस भेज देता है। तब बल
संदर्भ-सूची १. हरिवंशपुराण-सर्ग ४२, श्लोक । त्रिषष्टिशलाका. वर्णन तथा यदुराज वंश परिचय वर्णित है। पुरुषचरित श्लोक ७ उत्तरपुराण में नारद प्रसंग में
ब्रह्मरायल्ल ने भी "प्रद्युम्नरास" ग्रंथ में प्रारम्भिक नहीं है। बलराम की जिज्ञासा पर गणधर वरदत्त
आठ छन्दों में स्तुति बन्दना एवं कृष्ण परिचय देकर द्वारा शाम्ब प्रद्युम्न के पूर्वभव वृतांत वर्णन से कथा
नारद आगमन का उल्लेख किया है। कवि साधारु ने का आरम्भ हुआ है।
"प्रद्युम्न चरित" २५वीं चौपाई में नारद के द्वारिका "प्रद्युम्न शम्भषोत्परत्तिसंबन्धः पृच्छयते स्म सः। वरदत्त गणेन्द्रो नु एन्द्रबुद्धयेत्यमब्रवीत पर्व ७२/२
आगमन की कही है इससे पूर्व वन्दना एवं द्वारिका महासेनाचार्य कृत "प्रद्युम्न चरित" १४ सर्गों का वैभव वर्णन है। ब्रह्म नेमिदत्त के "नेमिनाथ पुराण" स्वतंत्र महाकाव्य है अतः उसमें प्रमुख कथा द्वितीय में उत्तर पुराण की भांति पूर्वभव वर्णन से प्रद्युम्न सर्ग से आरम्भ हुयी है प्रथम सर्ग में स्तुति, द्वारिका कथा प्रारम्भ हुयी है (१५वां सर्ग)