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गतांक से आगे :
पं० शिरोमणिदास कृत 'धर्मसार सतसई'
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मध्य काल पूजे जिनराय,
पुत्र कलत्र सब पूरं काज । आथ में (अस्तकाल ) जिन पूजा चित देय, कामदेव पद सो नर तेय ।।८१ दोहा - सोम श्री कन्या भली, दीनी जल की धार ।
राज ऋद्धिपद साधकै देव भयो द्युति धार ॥८२ मदनावली विद्याधरी जिनपद चदन चचि । छिन मे रोग विनाशकं सुभई देवकरि अचि ॥ ८३ अक्षत सो जिन पूजकै सुवा सुई निज हेत । देवलोक पद तिन लहे अष्टो ऋद्धि समत ||८४ दादुर पखुरी ले चल्यो जिन पूजा मनु लाय । मरकै सुरलोकहि गयो, देव भयो सुखदाय ॥६५ चरु सौ जिन पद पूजिकै हालिक सेठ सुजान । राज ऋद्धि सुख पायर्क, पुनि पहुचे निर्वान ||८६ जिन को दीप चढ़ाइक, विनयधर जुकुमार । देवलोक पद पायकै भयो इन्द्रद्युति धार ॥६७ जिन पद धूप चढ़ाइक, रोग सकल तह छीन । धवकुमार पदवी लही, गये देव परवीन ॥८८ फल सौ श्री जिन पूजकै, जिन मत नारी नाम | क्षणमे स्त्री पद नाशकै, देव भयो सुख धाम ॥८६ चौपाई - जो नर अष्टौ विधि बनाय,
नियम सहित पूजे जिन राय । ते नर लहै सुख अधिकार,
पुनिते होय मुक्ति उर हार ||६० जे पुष्पांजलि व्रत मन लावै,
ते नर खेचर पदवी पार्ष ॥ ६१ चढ़ विमान विद्या बहु सिद्धि,
भोग अनेक भुगते धन ऋद्धि । जो दश लक्षण धरं प्रवीन,
मारें ते शील महा तप लीन ।
[D] श्री कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल, दिल्ली
ते नर ब्रह्म ऊपजै स्वर्ग,
लोकातिक पद पावै वर्ग ॥६२ दोहा -- सहस तिहत्तर जानिके दोकरि अधिक जु एव ।
चार लाख पुनि ते कही, लोकातिक वर देव ॥३ रत्नत्रय व्रत जे नर करें, भव सागर तें लीजै तरं । अवर अनेक कहै जिनराय,
सो महिमको कहै बढ़ाय ॥६४ त्रेपन क्रिया पालहि व्रती,
लेश्या शुक्ल धरै बहुमती । आतं रौद्र कुध्यानहि त्यागे,
धर्म ध्यान के मारग लागे ॥६५ संज्ज्वलन चौकड़ी जावही उदै (य),
तप व्रत सयम पालहि मुदं । धरि संवेग निर्वेद जु लीन,
समाधि मरण कर पापहि छीण ॥६६ चार प्रकार आराधना राधे,
तब जीव स्वर्ग लोक पद सार्धं । सपुट सिला उपज्जइ एव,
जय जय सब करें शुभ देव ॥६७ पुष्प वृष्टि वरषँ असरार,
वायु सुगंध चलै हितकार । अनहद बाजे घने,
देवी देव बहुत सुख जने ॥६६ बहुत पुण्य तुम पूरब कियो,
तातें आनि इन्द्र पद लियो । यह इन्द्रासन तुम्हरौ देव,
ये सब देव करें तुम सेव ॥ ६६ रत्न भूमि कोमल सुख हेत,
कल्प वृक्ष तह सब सुख देत । निधि चिता मणि दीर्त मूरि
बाजे
कामधेनु तहं बहु सुख पूरि । १००