Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 91
________________ महाकवि प्रहदास : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 0 डा० कपूर चन्द जैन, खतौली भाषा भावों की संवाहिका है, प्राचीन भारतीय विशेषण जैसा हीं मालूम पड़ता है। अतः सम्भव है कि भाषाओं में संस्कृत को वरेण्य स्थान प्राप्त है किन्तु उनका नाम कुछ और ही रहा हो। प्राचीन संस्कृत है या प्राकृत ? यह आज भी विवाद का वे जन्मपर्यन्त गृहस्थ ही रहे। गृहस्थ रहते हुए भी विषय बना हुआ है। प्राकत' और 'संस्कत नामों से तो उन्होंने अपनी ओजस्वी वाणी का उपयोग साधारण व्यक्ति प्राकृत ही प्राचीन सिद्ध होती है। जन मनीषी और के चित्रग में नहीं किया। 'मुनिसुव्रतकाव्य' तथा 'पुरूदेव कवियों ने आरम्भ में प्राकृत भाषा में ही ग्रंथों का प्रण- चम्पू' में उन्होंने मुनिसुव्रत तथा ऋषभदेव के चरित्र को यन प्रारम्भ किया इसी कारण प्राचीन जैन साहित्य प्रतिपाद्य बनाया, तो भव्यजनकण्ठाभरण में आप्तादि प्राकृत भाषा में ही उपलब्ध होता है, किन्तु 'अनुयोग्द्वार तथा सम्यग्दर्शन की महिमा का विवेचन किया है। प्राकत सूत्र', जैसे ग्रंथों में संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं को व्यक्ति की प्रशंसा करने वाले कवियों को अर्हद्दास तुच्छ ऋषिभाषित कहने के कारण' संस्कृत में भी विपुल मात्रा दृष्टि से देखते थे। और राजा महाराजा आदि धनमें जैन साहित्य का निर्माण हआ जिसमें से अधिकांश भाग सम्पन्न मनुष्यों की कविता द्वारा प्रशंसा करना जिनवाणी आज भी अलमारियों में पड़ा अन्वेषकोंकी बाट जोह रहा है। का अत्यधिक अपमान समझते थे। प्राचीन जैन वाङ्मय में 'द्वादशांगवाणी' को सर्वोपरि "सरस्वती कल्पलता स को वा स्थान प्राप्त है। आचार्य समन्तभद्र ने जैन काव्य निर्माण सम्वर्द्धयिष्यन् जिनपारिजातम् । का श्रीगणेश किया और तब से यह धारा अब तक विमुच्य काजीरतरूपमेषु व्यारोपयेत्प्राकृतनायकेषु ॥ अविच्छिन्न रूप में चली आ रही है। ___ अहंद्दास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके ईसा की तेरहवी चौदहवी शताब्दी जैन काव्यग्रंथ- ग्रंथो में व्यर्थ का विस्तार नही है। हां 'पुरूदेवचम्पू' जैसे निर्माण की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस ग्रंथो मे जहां उन्होंने अपनी कला की कलाबाजियां दिखाई समय अनेक जैन काव्य ग्रंथों का प्रणयन हुआ। अहंद्दास हैं, वहां उनके वर्णन देखते ही बनते हैं। न केवल उनके जैसा प्रतिभाशाली महाकवि भी इसी समय हुआ जिसने गद्य ही 'गद्यः कवीनां निकष वदन्ति' की कसौटी पर 'पुरूदेव चम्पू' "मुनिसुव्रत काव्य" और "भव्यजनकण्ठा- सही उतरते है अपितु पद्य भी विभिन्न छन्दों में गुथे और भरण" रूप तीन रश्मियों का सुन्दर उपहार जैन साहित्य श्लेषानुप्राणित होकर सहृदयों को बलात अपनी ओर को दिया। आकृष्ट कर लेते हैं। भव्यजनकण्ठाभरण के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता जन्मस्थान: है कि वे हिन्दू शास्त्रों के अप्रतिम अध्येता तथा विद्वान् महाकवि अर्हद्दास ने अपने स्थान के सम्बन्ध में कोई थे ।उक्त पथ मे जगह-जगह दिये गये हिन्दी-शास्त्रों के सूचना नहीं दी। श्री नाथूराम प्रेमी ने उनके ग्रंथों का उद्धरण इसके समुज्ज्वल निदर्शन है। इसी आधार पर प्रचार कर्नाटक में अधिक होने के कारण उनके द शास्त्री ने उनके जैन धर्मानुयायी न होकर कर्नाटक में रहने का अनुमान लगाया है।' पण्डित अन्य धर्मानुयायी होने का अनुमान लगाया है। श्री नाथ- आशाधर अपने अन्तिम समय मे अवन्ती के नलकच्छपुर राम प्रेमीका अनमान है कि अहहास नाम न होकर मे रहे थे और वहीं उन्होंने जिनयज्ञकल्प, अनगारधर्मामत

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