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२०, वर्ष ३६,कि.३
अनेकान्त
उदाहरण स्वरूप दिये है
रधर्मामृत की टीका' वि० स० १३०० में पूर्ण की थी।" चन्द्रप्रभं नौमि यदंगकान्ति
इससे पूर्व वे त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र', 'जिनयज्ञकल्प', सागारज्योत्स्नेति मत्वा द्रवतीन्दुकान्तः । धर्मामृत' की टीका' आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना कर चकोरयूथं पिबति स्फुटन्ति
चुके थे। ऐसा उक्त ग्रन्थों की प्रशस्तियों से विदित होता कृष्णेऽपि पक्षे किलकरवाणि ।।" है। यतः उन्होंने अपनी अन्तिम कृति 'अनगारधर्मामृत की 'अत्र चन्द्रप्रभागकान्तौ ज्योत्स्ना बुद्धिः ज्योत्स्नासा- टीका' १३०० वि० स० (१२४३ ई०) में पूर्ण की थी। दृश्यं बिना न स्यादिति सादृश्यप्रतीतो भ्रान्तिमदलंकारः।' अतः उनका रचना काल ईसा की १३वीं शताब्दी का
'अत्रारोपविषये जिनांगकान्ती चकोरादीनां ज्योत्स्ना- पूर्वार्द निश्चित है । अलंकार चिन्तामणि के कर्ता अजितनुभवः। अलंकार चिन्तामणि ज्ञानपीठ सस्करण, सेन का रचनाकाल डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने वि० सं०
पृष्ठ १२३, १३५ तथा २६६ । १३०७-१३१७ तथा डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने १२४०. __ इसी प्रकार मुनिसुव्रत काव्य के १२३४. २०३१, १२७० ई० (१२६७-१३२७ वि० स०) माना है । २१३२ तथा २१३३ श्लोक अलंकार चिन्तामणि के पृष्ठ २०५, २२८,२२८ तथा २११ पर उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत
आशाधर और अजितसेन के मध्यवतो होने के कारण किए गए हैं।
अहंदास का समय १३वी शताब्दी ई० का मध्य-भाग इन श्लोको से यह स्पष्ट है कि अर्हहास अलंकार- मानना
(क्रमशः) चिन्तामणि के कर्ता आचार्य अजितसेन से पूर्ववर्ती हैं। सौभाग्य से हमें आशाधर के काल निर्धारणार्थ अधिक
अध्यक्ष संस्कृत विभाग, जैन कालेज नही भटकना होगा उन्होंने अपनी अन्तिम रचना 'अनगा
बड़ा बाजार खतौली २५१२०१ (उ० प्र०)
संदर्भ-संकेत १. 'सक्कया पायया चेय भणिईओ होति-दोण्णिवा।
वाणवा।
भाग-४. पृ०५० सरमंडलम्मि गिज्जन्ते पसत्था इसिभासिया ॥ ११. भव्यजनकण्ठाभरण, प्रस्तावना, पृ० १० अनुयोग द्वारसूत्र : व्यापार २०१० सत्र १२७ १२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४२ (सन्दर्भ जैन : संस्कृत काव्य के विकास मे जैन कवियो १३. मुनिसुव्रतकाव्य भूमिका, पृ० ख १ कां योगदान)।
१४. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, द्वितीय भाग, पृ०२४५ २. भव्यजनकण्ठाभरण, भूमिका, पृ०८
१५. गुरु गोपालदास वरया स्मृतिग्रन्थ पृ० ५०१ तथा ३. जैन साहित्य और इतिहास, पु० १४३
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित अनगारधर्मामृत की ४. दामो भवाम्यहतः, (मुनिसुव्रत काव्य १०.४६) से भी
प्रस्तावना । __यही ध्वनित होता है।
१६. मुनिसुव्रतकाव्य, १.२ ५. मुनिसुव्रतकाव्य, १.१२
१७. 'नलकच्छपुर श्रीमन्नेमि चैत्यालयेसिधत् । ६. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४३
विक्रमाब्दशतेष्वेषा त्रयोदशसु कातिके ॥' ७. जैन साहित्य और इतिहास पृ० १४३
अनागारधर्मामृत टीका प्रशस्ति, ३१ ८. जन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-६, पृ० १४ १८. अलंकार चिन्तामणि, प्रस्तावना, पृ० ३४ भारतीय ६. भन्यजनकण्ठाभरण पद्य सं० २३६
ज्ञानपीठ संस्करण। १०. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, १६. व्यक्तिगत पत्र दिनांक २७-६-६२ के आधार पर।