Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 76
________________ गणीन्द्र गौतम का २५००वां निर्वाण वर्ष 01. ज्योति प्रसाद जैन अन्तिम तीर्थंकर भगवान बद्धमान महावीर (ई०पू० हो गई। और उसने अपने समस्त शिष्यों सहित भगवान ५००-५२७) के धर्मतीर्थ में उन सर्वज्ञ-वीतराग-हितोपदेशी महावीर का शिष्यत्व सहर्ष स्वीकार कर लिया। तभी से जिननाथ के पश्चात् सर्वप्रथम स्थान उनके अग्रशिष्य एवं वह पावन आषाढी पूर्णिमा लोक मे गुरुपूर्णिमा के नाम से प्रधान गणधर भगवत् इन्द्रभूति गौतम का है। प्रत्येक शुभ- प्रसिद्ध रहती आई है। गौतम स्वामी के अनुज वायभति कार्य के प्रारंभ में पढ़े जाने वाले मंगल-श्लोक-"मगल एवं अग्निभूति तथा अन्य उन्ही जैसे आठ दिग्गज पण्डित भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी" आदि में भी भगवान भी अपने-अपने शिष्य समूहों सहित उसी समय दीक्षित हुए, महावीर के साथ ही साथ गौतम गणेश का मंगल स्मरण और गौतम सहित भगवान महावीर के ये ग्यारह गणधर नित्य किया जाता है। बने । अगले दिन, श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के प्रात:काल वस्तुतः भगवान महावीर का तीर्थङ्करत्व तब तक सूर्योदय की प्रथम किरण के साथ, अभिजित नक्षत्र में, सार्थक नही हुआ जब तक कि उन्हें गौतम स्वामी के रूप निकटस्थ विपुलाचल के शिखर पर, जहाँ उस समय में सर्वथा उपयुक्त गणधर का सुयोग प्राप्त नहीं हो गया। समवसरण-सभा जुडी थी, चतुर्विध श्रीसघ (मुनि-आयिकाभगवान को केवल ज्ञान की प्राप्ति वर्तमान बिहार राज्य श्रावक-श्राविका) के समक्ष त्रैलोक्य-पूजित जगद्गुरु तीर्थकर मे ऋजुकूला नदी के तटवर्ती जभिक (जम्हइ) ग्राम के महावीर की सर्वकल्याणकारी दिव्य ध्वनि खिरी, वाहर एक शालवृक्ष के नीचे, ईसा पूर्व ५५७ को वैशाख क्योंकि उसे झेलने मे सर्वथा समर्थ गौतम रूपी गणीन्द्र का शुक्ल दशमी के अपराह्न में, हुई थी। इन्द्रादि देवों ने सुयोग मिल गया था। परिणामस्वरूप, उसी दिन, उसी आकर पूजोत्सव किया, समवसरण भी रचा गया, किन्त समय, उसी स्थान पर वीर प्रमु की प्रथम देशना के साथ भगवान की वाणी नही खिरी-वह ६६ दिन तक मौन उनके धर्मतीथं की उत्पत्ति हुई, उनके धर्मचक्र का प्रवर्तन रहकर विहार करते रहे, और आषाढ़ शुल्क पूर्णिमा के हुआ, श्री वीर उनके शासन का ॐनमः हुआ। भगवान दिन मगध महाराज्य की राजधानी राजगृह अपरनाम महावीर रूपी हिमाचल से प्रसूत वह श्रुत-सरिता रूपी पञ्चशैलपुरके वैभार पर्वत पर आ विराजे। उसी दिन, ज्ञानगगा, गुरुगोतम के मुखरूपी कुण्ड से निःसृत होकर ही वहीं स्वतः प्रेरित होकर, अथवा वटक-वेषी इन्द्र की प्रेरणा "सबंसत्त्वानाहिताय, सर्वसत्त्वानां सुखाय" लोक में प्रवाहित से समस्त वेद-वेदांगों का अधिकारी आचार्य द्विजोत्तम इन्द्रभूति गौतम अपने शिष्य समुदाय सहित, आत्म-तत्व सर्वज्ञ भगवान के दिव्योपदेश को हृदयंगम् करके विषयक अपनी शंकाओं के समाधानार्थ पधारा । समवसरण गौतम गणेश ने उसके सार-संक्षेप को सुव्यवस्थित रूप से के मध्य गन्धकुटी के ऊपर अन्तरीक्ष विराजमान उन अंग-पूर्व ज्ञान में निबद्ध किया। तीर्थकर भाषित एवं श्रीमत् केवलज्ञान-साम्राज्य-पदशाली परम तेजस्वी अहंत गणधर गंथित इस दिव्य श्रृत के दो विभाग थे-अंगपरमात्मा के साक्षात् दर्शन प्राप्त करते ही उस ख्याति प्रविष्ट में आचारांग आदि बारह अंग थे, जिनमें से अन्तिम प्राप्त विद्वत् शिरोमणि विप्रश्रेष्ठ महापण्डित इन्द्रमति दष्टिप्रवादांग के पांच विभाग थे। इन विभागों में सर्वाधिक गोतम का सम्पूर्ण ज्ञानमद विगलित हो गया, वह विनम्र महत्वपूर्ण पूर्वगत-ज्ञान जो चौदह पूर्वो में विभक्त था, और एवं विनयाभूत हो गया, उसकी समस्त शंकाएँ स्वत:निमल जिसमें जनोपदिष्ट्र तत्वज्ञान, सिद्धान्त एवं दर्शन का पूर्व

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