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णायकुमार चरिउ में प्रतिपादित धर्मोपदेश
0 डा. कस्तूरचन्द 'सुमन' णायकुमार-चरिउ काव्य के कर्ता महाकवि पुष्पदन्त धर्म के भेद-संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं । थे। इस चरित काव्य में उन्होंने राजपुत्र नागकुमार से प्रथम वे जो गृहस्थ जीवन यापन करते हैं और दूसरे वे सम्बन्धित घटनाओं को चित्रित किया है। पिता द्वारा जिन्होंने गहस्थी से मख मोड गाईस्थिक बन्धनों से नाता निर्वासित होकर यद्यपि वे नाना प्रदेशों में भटकते हैं किन्तु तोड़, तप से सम्बन्ध जोडा है । ऐसे लोग अनगार कहे है । पुण्योदय के कारण सर्वत्र अपने नैपुण्य से प्रभावशाली गृहस्थो का धर्म आगार-धर्म और जिस धर्म को मुनि व्यक्तियों को भी प्रभावित करते है । अनेक राज-कन्याओं पालते हैं उसे अनगार-धर्म की सज्ञा दी गई है। को विवाह कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाते है । उन्होंने ऐसे-ऐसे कार्य किये जो साधारण लोगों के लिए अशक्य थे।
सागारधर्म
गृहस्थ धर्म का निर्वाह तभी होता है जब गही हिंसा, घटनाओं से यह चरित्र वाल्मीकि कृत रामायण में
झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह जनित दोषो से बचे । उल्लिखित रामचरित के समान है परन्तु इस काव्य मे
___ इसके लिए उसे जीव दया करना, विनयवान होना, सत्य
ला चित्रित धर्मोपदेश काव्य की विशिष्टता का प्रतिबोधक है।
। और मधुर वचन बोलना, पर द्रव्य के अपहरण से अपने धर्म का स्वरूप-इस काव्य मे आचार्य श्रतिधर ने हाथ खाच रहना, पर स्त्री से पराङ्मुख रहना और नागकुमार के द्वारा पूछे जाने पर धर्म का स्वरूप समझाते लोभानग्रह हेतु परिग्रह का प्रमाण रखना आवश्य हुए कहा कि "जीवों पर दया करना, क्षीण, भीरू, दीन
इसके अतिरिक्त ऐसे गेही को सूर्यास्त से पूर्व ही और अनाथो पर कृपा करना, कर्कश वचन, ताडन, बन्धन
भोजन करना पड़ता है, मधु-मांस और मद्य का त्याग व अन्य प्रकार की पीडा विधि का प्रयोग नही करना,
करना पडता है, पच उदम्बरों का स्वाद भी त्यागना साथ ही झठ वचन नही कहना, सत्य व शौच मे रुचि
पडता है। इसे गुरुओ के अनुसार दिशाओ मे गमनागमन खना मधर करुणापूर्ण वचन बोलने के साथ-साथ दूमर को मर्यादा रखनी पड़ती है। वह शिक्षाक्त पालता है, के धन पर कभी मन नहीं चलाना, बिना दी हुई वस्तु को पापी जीवो की उपेक्षा करता है, वर्षा काल मे बाहर नही ग्रहण नही करना तथा अपनी प्रिय पत्ना स हा रमण जाता, प्रोषधोपवास करता है, पात्रो को आहार देता है, करना. पर स्त्री पर दृष्टि नहीं चलाना आर पराय धन विधिपूर्वक सन्यास ग्रहण करता है, वह कूगुरु, कदेव आदि को तण के समान गिनना, गुणवानों की भक्ति सहित
हत को नहीं पूजता। वह तो शुद्ध सम्यष्टि होता है । स्तुति करना।
जिनेन्द्र का ध्यान और सामायिक करने में ही अपना इस प्रकार धर्म के विभिन्न अगो का का अभग रूप समय व्यतीत करता है। से गलन करना ही धर्म का स्वरूप बताया गया है।
गहस्थों का नित्य कर्म-दान निष्कर्ष यह है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरत होकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अचौर्य, ब्रह्मचर्य गृहस्थों को आचार्यों ने नित्य करने योग्य छह कर्म और अपरिग्रह इन धमों के अंगों का पालन करना ही धर्म बताए है, अर्हत् पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप है। धर्म का स्वरूप है।
और दान । इनमे आचार्य कुन्दकुन्द ने दान को सर्व प्रमुख