________________
६, वर्ष ३६, कि० २
अनेकान्त
में विजयी होता है।" इस प्रकार आचार्य कोष को राज्य छोड़कर अन्यत्र चली जाती है और इस प्रकार राष्ट्र जनकी सवागीण उन्नति एवं उसकी सुरक्षा का अमोघ साधन शन्य हो जाता है। बिना प्रजा के राज्य का अस्तित्व मानते है। कोष वाले राजा को सेवक और सेना सब कुछ भी नहीं रहता। अन्यत्र आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि सुलभ होसकते है। परन्तु कोष विहीन राजा को कोई भी यदि राजा प्रयोजनाथियो के इष्ट प्रयोजन न कर सके वस्तु नही हो सकती।
तो उसे उनकी भेंट स्वीकार नही करना चाहिए, क्योंकि प्राय-व्यय-सम्पत्ति उत्पन्न करने वाले न्यायोचित ऐसा करने से लोक मे उसकी हंसी और निन्दा होती है। साधन अथवा उपाय, कृषि, व्यापार आदि एव राज्य द्वारा राजा को अपराधियो के जाने से आये हए, जुआ में जीते उचित कर लगाना आदि को कर कहा गया है। स्वामी हुए, युद्ध में मारे गए, नदी, तालाब और मार्गे आदि में की आज्ञानुसार धन खर्च करना व्यय है। आचार्य सोमदेव मनुष्यों के द्वारा भूले हुए धन का तथा चोरी के धन का, का कथन है कि राजा अपनी आय के अनुसार ही व्यय पति पुत्रादि कुटुम्बियों से विहीन अनाथ स्त्री का अथवा करे, क्योकि जो राजा आय का विचार न करके अधिक रक्षकहीन कन्या का धन एव विप्लव आदि के कारण व्यय करता है वह कुबेर के समान असख्य धन का स्वामी जनता द्वारा छोडे हुए धन का स्वय उपभोग कदापि नहीं होकर भी भिक्षक के समान आचरण करने वाला ही करना चाहिए। इस प्रकार के धन का उपयोग प्रजा की जाता है। एक अन्य स्थान पर वे लिखते है कि नित्य भलाई के कार्यों में तो किया जा सकता था किन्तु उसका धन के भय से सुमेरु भी क्षीण हो जाता है।
उपयोग राजा के लिए निषिद्ध था। राजकर के सिद्धान्त-प्राचीन काल में कर के कुछ निश्चित गिद्धान्त थे जिनका उल्लेख धर्मशास्त्रो मे प्राय के स्रोत- प्राचीन काल में राज्य की आय के किया गया है। राजा प्रजा पर कर लगाने मे स्वतन्त्र दा प्रमुख स्रोत थं--(१) भूमि कर तथा (3) अन्य वस्तओं नही था, अपितु वह उन्ही करो को प्रजा पर लगा सकता
मता पर लगने वाला कर । राजा की आय का प्रमुख साधन था जिनका प्रतिपादन स्मति ग्रन्थो द्वारा किया गया है। भूमि कर ही था, जो उपज का छठा अश ही था । आचार्य आचार्य सोमदेव का मत है कि अधिक कर लगाकर जनता सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कुछ नही लिखा है कि भमिकर का मूलोच्छेदन करना सर्वथा अनु चत है। जिस प्रकार की दर क्या हो। किन्तु नीतिवाक्यामत के आधार पर वक्ष के काटने से केवल एक बार ही फल प्राप्त हो सकते यह कहा जा सकता है कि सोमदेव भी भूमिकर के सम्बन्ध है, भविष्य मे नही।" इसी प्रकार य द जनता पर प्रारम्भ मे उसी प्राचीन परम्परा को मानते थे। प्रथी समदेश के मे ही भारी कर लगा दिए जायेग तो राज्य को केवल एक चौबीसवे सूत्र से ज्ञात होता है कि नीतिवाक्यामत में भी बार ही धन प्राप्त हो सकेगा भविष्य में उसे धन की प्राप्ति छठे भाग का ही अनुमोदन किया गया है। नही हो सकेगी क्योकि भारी करो को एक बार अदा करके
आचार्य सोमदेव के अनुसार कृषको के साथ राजा जनता गरीब हो जायेगी और फिर वह कर देने योग्य नहीं का व्यवहार उदारतापूर्वक ही होना चाहिए। अनावृष्टि रहेगी। अत. राज्य को कभी लोभ अथवा तृष्णा के वशी- के कारण यदि फसल अच्छी न हो तो उनको लगान में भूत होकर प्रजा पर भारी कर नही लगाना चाहिए। छूट देनी चाहिए या कृषको को लगान से पूर्णरूपेण मुक्त
राजकर साधन था न कि साध्य-आचार्य कर देना चाहिए। कर ग्रहण करने में भी उनके साथ सोमदेव ने कोष वृद्धि में केवल धार्मिक और न्यायिक कठोरता का व्यवहार नही करना चाहिए। जो राजा साधनो का प्रयोग करने की अनुमति प्रदान की है। लगान न देने के कारण कृषको की गेह, चावल आदि की अधार्मिक साधनो द्वारा कोष वृद्धि का उन्होंने विरोध अधपकी फसल कटवा कर हस्तगत कर लेता है वह उन्हें किया है। वे लिखते है कि जब कोषहीन राजा अन्याय- देश त्याग के लिए वाध्य करता है। जिसके कारण राजा पूर्वक प्रजा से धन ग्रहण करता है तो प्रजा उसका देश और प्रजा दोनों को ही आर्थिक सकट का सामना करना
पाहा