Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ सुकेतु श्रेष्ठी की कथा जम्बूद्वीप- पूर्वविदेह पुष्कलावती देश पुण्डरीकिणी नगरी मे वसुपाल नाम का राजा राज्य करता था । वहाँ एक जैनधर्म में अतिशय श्रद्धालु सुकेतु नाम का वैश्य अपनी स्त्री धारिणी सहित रहता था। वह एक बार व्यापार के लिए द्वीपान्तर जाने को घर से निकलकर शिवंकर उद्यान मे नागदत्त श्रेष्ठी के बनवाये हुए नागभवन के निकट प्रस्थान करके ठहरा था। धारिणी मध्याह्न के समय उसके लिए घर से रसोई तैयार करके वहाँ से गई । सुकेतु अतिथि संविभाग व्रत धारण किये था. इसलिए वह मुनियों के आने की बाट देखने लगा। इतने में गुणसागर मुनि अपनी प्रतिक्षा के पूरी होने पर वर्या के लिए वहां से निकले सुकेतु ने उनका विधिपूर्वक पड़गान करके अत रायरहित आहार दिया, जिसके प्रभाव से पंचाश्चर्य हुए तथा सुकेतु के अधिक निर्मल परिणामो के कारण साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा हुई। नागदत्त श्रेष्ठी ने यह कहकर कि "ये मेरे नागभवन के आंगन में बरसे हैं, इसलिए मेरे हैं" उन्हें अपने घर ले गया। परन्तु वे रत्न थोड़ी देर मे आप ही आप जहा के तहां चले गये । तब नागदत्त फिर इकट्ठे करके उन्हें ले गया परन्तु आश्चर्य की बात है कि वे वहीं के वही फिर पहुच गये। यह देख कर क्रोधित हो नागदत्त ने उन रत्नों को फोड़ने का विचार करके एक रत्न को शिला पर दे मारा, किन्तु वह फूटा नहीं, उलटा लौटकर उसके ललाट में जोर से लगा। यह देखकर देवो ने हॅमी करके उसका नाम मणिनागदत्त रख दिया । । तब नागदत अतिशय क्रोधित हो महाराज असुपाल के समीप लाकर बोला- हे देव, मैंने जो नागभवन बनवाया है, उसके आगे रत्नों की वर्षा हुई है। मो आपको उन्हें अपने भडार मे मंगाकर रखना चाहिए। राजा ने कहा- ऐसा अकारण द्रव्य मुझे नही चाहिए परन्तु नागदत्त माना नही पैशे में जा गिरा। तब राजा ने उसके अधिक आग्रह से उन्हें अपने भंडार में मंगाकर रख लिया। परन्तु थोड़ी ही देर मे वे वहीं के वहीं पहुंच गये। राजा ने पूछा- ऐसा क्यों हुआ ? तब किसी ने कह दिया कि सुकेतु श्रेष्ठी के दिए हुए मुनिदान के प्रयास से ये रत्न बरसे है, इसीलिए शायद ऐसा हुआ होगा । तब राजा ने 'बिना विचारे हाय ! मैंने यह क्यों किया', इस प्रकार पश्चाताप करते हुए सुकेतु को बुलाया । वह पंचरत्न और कल्पवृक्षो के फूल लेकर आया और महाराज को भेंट किए। उन्होंने कहा सेठ जी मैंने जो बिना सोचे-विवारे अकृन किया है, उसे क्षमा करके मुख से अपने घर रहिए। तब श्रेष्ठी ने - कहा - महाराज, आप मेरे स्वामी हैं, क्षमा करने की कौन सी बात है । रत्नो की क्या बड़ी बात है ? प्रयोजन हो बो जितने चाहे रत्न इस सेवक के घर से मगा लीजिए। राजा ने कहा- तुम्हारे घर में रखे हुए रत्न क्या मेरे नहीं हैं ? जब आवश्यकता होगी, तब मगा लूगा । श्रेष्ठी प्रसन्न होकर अपने घर गया और सुख से रहने लगा । राजा सुकेतु पर इतना प्रसन्न हुआ कि जो कोई सुकेतु की प्रशसा करता था उससे वह प्रसन्न होता था और मणिनागदत्त की जो स्तुति करता था उससे द्वेष करता था। एक दिन राजा ने सुकेतु की बहुत प्रशंसा की, परंतु उसे जिनदेव नाम का एक श्रेष्ठी सह न सका । इसलिए बोला- महाराज आप सुकेतु के रूप गुण की प्रशंसा करते हैं तो कीजिए । और यदि धन-वैभव की करते हो, तो पहले मेरे साथ धन-वाद कराइए और जो जीते उसी की प्रशंसा कीजिए। यह सुनकर सुकेतु ने कहा-ऐश्वर्य का क्या घमंड करता है ! चुप रह जिनदेव ने कहा-पुरुष को कोई कीर्ति का काम करना चाहिए, इसलिए मैंने प्रार्थना की है कि तुम मेरे साथ धन-वाद करो । सुकेतु बोला - जैनी को बाद करना उचित नहीं है तथापि जिनदेव ने आग्रह नहीं छोड़ा और सुकेतु को धन-वाद स्वीकार करना पड़ा। 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144