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संस्मरण :
संस्थानों की सुरक्षा : टेढा प्रश्न
जिन लोगों को सम्पन्नता ने राग-रम और सुख भौगो का कीड़ा बना दिया है, उन्हें राग-रग मे लिप्तता के कारण पढ़ने का समय नही मिलता और जो विपन्न है उन्हें गुजारे योग्य आवश्यक सामग्री जुटाने से फुरसत नही मिलती। ऐसे मे सिद्धान्त सम्बन्धी खोज पूर्ण पर मनन चिन्तन करने वाले कहा, कितने सम्भव है ? हा, यदा कदा जो पढ भी लेते होंगे उनमें कुछ तो विचकते भी होंगे कि कहा से नई बाते पैदा करके दी जा रही है? उदाहरण के लिए जैसे 'अपरिग्रह को मूल जैन संस्कृति' बतलाकर भूले हुए मूल सूत्र का उद्घाटन करना, जीवरक्षण, करुणा, दया आदि जैसे भावों को अहिंसा न कह 'लेश्या' नाम देना और व्रतों मे जैन के अनुकूल वित भाव पोषक 'हिसाव्रत' जैसे नामों की पुष्टि कर जैनत्व विरोधी, रतिपोषक, 'अहिमावत' जैसे नामों को निरस्त करना, जैसी बाते पाठको के गले कहा तक उतरती होगी । यह हम नहीं जानते हा इतना अवश्य कहते है कि
जैन समाज धार्मिक और प्रधान समाज है । पिछले समय में इसमे पर्याप्तनिक भी रहे हैं और थोड़े बहुत अब भी है। कुछ लोग ऐसे विचारों को पढ भी है और कुछ लोग अपने अभिमत भी भेजते है। हम भी हो लिखते है वह बिना किसी पूर्वाद्ध के यह मान कर लिखते है कि पाठकों के समका दृष्टिकोण रखे और पाठक उसमे निश्चित ही ऐसा करने से तत्व वितन तो होता ही है, साथ ही निर्णायक दौर की सन्निकटता का मार्ग भी प्रशस्त होता है ।
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वर्तमान के वातावरण को तो सभी जानते है । लोगों मे सिद्धान्त ज्ञान और आचार-विचार पालन का स्थान मिट्टी, पत्थर और जड़ की खोज ने बेठे है नए-नए स्थानों
श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
को पुराने तीर्थों की जगह दिलाने की कोशिशें भी लोग करने लगे है, सभी ओर आत्मज्ञान का हास है। अधिक क्या कहे जो सस्थाएं धार्मिक तत्व चितन खोज और सुधार हेतु स्थापित उनमे भी कही कही दुष्प्रवृत्ति दृष्टिगोचर है हमे स्मरण है कि पहिले कभी जब हम एक सस्था का कार्यभार संभालने पहुचे तो एक दिन हमने देखा किसन्या के मुख्य कक्ष में संस्था के कुछ कर्णधार सामूहिए रूप मे बैठे ताश खेल रहे थे, चाय, पान का दौ चल रहा था और उनमें से कई को सिगरेटो के धुए प्रागण धूमायमान हो रहा था। हम आश्चर्य मे पड़ गये, सर्विस पर नए-नए गए थे। अधिकारियों के बीच क्या कहते ? चुपचाप अपना सिर धुनते रहे और सोचते रहे हाय री दिगम्बर समाज और उसके ऐसे ये कर्णधार तथा हम जैसे गुलाम पंडित, जिन्होंने पढ़कर भी खो दिया जो दुराचार के विरोध में जूं तक न कर सके।
कुछ दिनो बाद अवसर पाकर बड़ी हिम्मत जुटाकर डरते-डरते हमने सस्था के मुख्याधिकारी से एकान्त में ऐसे निवेदन किया जैसे मानो हम किसी वरदान पाने की साधम किसी देवता को मना रहे हो हम सोचते भी रहे कि यदि कही इन्हे बुरा लग गया या इन्होने अपनी और अपन पर की बेइज्जती (Insult ) समझी तो हमारा पत्ता साफ होने मे सन्देह नहीं । और यदि इन्होंने हमें कोई इल्जाम लगाकर नौकरी से निकाल दिया तो गृहस्थी भूखो मर जायेगी। क्योंकि निश्चय ही ऐसे लोगों पर निकाल देने से बडा अन्य हथियार सुरक्षित नही होता । पर गनीमत हुई कि निकल जाना हमे बड़ी बात नही थी हम निकाले जाने की सजा के स्थान से तो इसी प्रकार के
अभ्यासी हो चुके थे—एक सुकार्य के कारण हम बुरी