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पं० शिरोमणिदात
'धर्मसार सतसई'
कही आयु उत्कृष्ट वखानि,
सागर एक प्रथम अघ जानि । सागर तीन दूसरी मही,
___सागर सात तीसरी कही ॥३४ दस सायर चौथे दुखदाई,
पांचे सत्रह सागर आई । छहे में नरक होइ बाबीस,
सात में पुनि जानहु तेतीस ॥३५ प्रथम दूसरो अघ दुखदाई, - राजू एक सुनो तुम राय । अघ पांचो की संख्या कही,
- राजू एक एक है सही ॥३६ दोहा-राजू एक निगोद पुनि, कही ऊचाई जानि ।
अधौलोक सब जानिज राज सात प्रमाण ।।३७ नरक सकल इह विधि कहै सकल पाप फल जानि । गणधर जो वर्णन करे तो वन सकइ बखानि ॥३८
इति नरक दुख वर्णन ॥ अथ तियंच करनी फल वर्णन :चौपाई-अप्रत्याख्यान चौकड़ी वाधे,
आर्त ध्यान सदा अनि माधै। चिंता शोक मोह अधिकार,
___लेश्या नील काम बहु भार ।।३६ हिंसा हेतु करहि प्रपच,
यात जीव होय निर्यच । शीत उष्ण वर्षा अधिकार,
क्षुधा तृषा भय दुख अपार ॥४० जबहि जीव मिथ्यात्वै आवै,
विकल त्रय गति निश्चय पावै । मिथ्यात्व थापना थाप जबही,
नाना योनि जीव धरै तबही ॥४१ नाहर सिंह क्रोध ते होय,
- मान उदय खर लभइ सोय । होय परेवा (कबूतर) विषयनि लीन,
पुनि ते नर्क पड़े अति हीन ॥४२ बहुत मोह त प्रेत बताइ, .
अजगर सर्प लोभ ते जाइ ।
रात को भोजन जे नर कर,
अरुवा गीध हि दुर्गति परै ॥४३ परधन-पाय पोखि निज गात,
तप जप सयम धरै न बात । यातै बहुत भार अति वहै,
ऊट, वृषभ, महिषा गति कहै ।।४४ अनगाल्यो जल पीवै पापी, ..
दुर्गति दुख लहै संतापी। यह तिथंच दुख की खानि,
को पडित सब कहै बखानि ।। ४५
॥ इति तिर्यंच करनी फल ।। . प्रत्याख्यान चौकडी कहिए,
होय मनुष्य शुभाशुभ किये । अशुभ कर्म ते खोटी जाति,
लहइ जीव गति नाना भांति ।। ४६ मुनि की निन्दा कोढ़ी होय,
. महा दुःख भुगतं नर मोय । जिनवर धर्म द्रोह अति कर,
होय नीच पुनि दुर्गति पर ॥४७ पर नारी देखे अकुलाय,
बहुत विकार करै दुखदाय । दर्सनावरणी होय जु बध,
यात जीव होय पुनि अध ॥४८ करि कुतीर्थ हिंसा आनद,
. मिथ्या मारग थाप फद । पर जीव छेदन देखे अग,
यात जीव होय मरं पगु ॥४६ ले निर्माल्य पोखं गात,
कुटुम्ब सहाय कर सुख वात । यात कुटुम्ब नाश अति होय,
भव भव दुख देखे नर सोय ॥५० धन जे पाय धर्म नहि कर,
तृष्णा कर हिंसा शिर धरै । होय निर्धनी यात रीख,
घर पर फिरहिं न पावै भीख ॥५१