Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 58
________________ १०, वर्ष २६, हि०२ अनेकान्त पुनि आधी पांच अघ होइ, ऊपर इह विधि गनिज सोइ । हुड़ उक देह धरै जीव तहां, लिंग नपुंसक कहिए जहां ।।१६ मन मैं दुख उपज बनो, अपनी देह आप आप जो हनौ । उपजै रोग अनेक जु आइ, भूमि स्वभाव न नैकु सुहाइ ॥१७ अवधि विभंगा जु तहाँ प्रकास, पूरव बैर तहां अति भासै। ले ले धन कुटं तहं चंड, बाण बेधि पुनि देहि जु दह ॥१८ कणं नासिका काट दोषी, नेत्र काढ़ मार अति रोषी। एकन जंत्रनि पेरै पापी, मूगरनि मारि कर संतापी ॥१६ एकन सूली रोपन रच, पुनि ल अग्नि कुण्ड मे पचै । झूठ वचन कह पारी वाट, तातै अघ में करवत काट ॥२० रे रे मूढ़ मदिरा तुम पियो, तात तोहि नर्क मे दियो । ऐसो कहि सीसो पिघलाय, मुख मैं भरै महा दुख पाय ॥२१ हा हा करि रोवै तहं दीन, भय चिता कप तनु छीन (क्षीण)। तिल तिल खंडइ तहं पुनि देह, फिर फिर मिल ज्यों पारी नेह ॥२२ तूं रे दुष्ट मांस बहु भख्यो, अब तूं जानि नरक में लख्यो । ऐसो कहि तामो (ताम्र) तहं ओटि, मुख में देहि कर पुनि घोटि ॥२३ पर नारी भुगती सुख हेतु, अब तोहि आनि मिली इह खेत । ताती(गर्म) लोह पुतरिया लाल, ले संयोग करो तत्काल ॥२४ हा हा दव देव नित कर, पुनि तहं देह आपुही जरै। आपस में दुख दें अमि'घोर, अगरनि सेज लुटार जोर ॥२५ बहती नदी बैतरणी जहां, महा दुर्गध रुधिर जल तहा । तामैं बोरि (डुबोकर) कर शत खंड, __ कृमि अनेक काट अति चंड ॥२६ ताड़ वृक्ष दीस असि पत्र, ऊपर परहि आनि बहु जत्र । छिन्न भिन्न होय तिनकी जु देह, गिरे वाण ज्यो बरस मेह ॥२७ करवत काटि कर दो भेद, पुनि छिन मिलहि करहिं बहु खेद । अग्नि कुण्ड मे डार जारि, पुनि लै पारे जल मे डारि ॥२८ पूरब बैर सुनि चित मे धरै, मारो मारोते सब मिल करें। असुर कुमार पुनि देहिं बताय, उठ क्रोध पुनि अंगन माय ॥२६ सर्प सिंह अरु गीध बहु जाति, धरै विक्रिया नाना भाति । आप आप मे पुनि ते भर्ख, पूरव बैर भाव सब लखै॥३० मन एक लक्ष लोह को पिंड, क्षण मे गले महा प्रचंड । शीत उष्ण धरती है जहां, बहुत दुख जीव पावहिं तहां ३१ सकल जीव के पुद्गल पाइ, तउ वन खात न भूख बुझाइ । ऐसी क्षुधा सदा दुख बहै, सरसों समान न के बहूं लहै ॥३२ सकल समुद्र को जल जु पीजे, तउ तृषा नहीं पूरण हूजे । बंद एक नही कबहूं पेखे, ऐसे सदा काल दुख देखें ॥३३

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