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जैन विद्याओं में शोध एक सर्वेक्षण
भिक्षु आशावर के साथ भूधरवास, बनारसीदास, टोडरमल, हरिचन्द्र, नयसेन, भागचन्द्र भट्टारक सकलकीर्ति, कुजनलाभ, जिनदास, जिनहर्ष, हस्तिमहल, बादीमसिंह, ज्ञान सागर और नयचन्द्र के विषय मे अध्ययन हुए है । इन अध्ययनों की संख्या अनेक दृष्टियों से कम है। अनेक आचायों के विषय में जानकारी अपूर्ण है, अनिर्णीत । उनके समकालिक एवं उद्धरित साहित्य के अध्ययन के आधार पर इसे निर्णायक रूप देना चाहिए। आगम लेखी आचार्य, पूज्यपाद वीरसेन यतिवृषभ, उम्रा विश्व भूत सागर, द्यानतराय, नेमचन्द चक्रवर्ती आदि के सम्बन्ध मे शोध मौन प्रतीत होती है । यह विषय न केवल व्यक्तिविशेषो के समग्र परिचय में सहायक है अपितु वह उत्तरवर्ती शोध का प्रेरक भी है। जैन कला एवं पुरातत्व
इस क्षेत्र में शोध कार्य की गति मे विशेष परिवर्तन नही हुआ है। पूर्व मे अहार, देवगढ़, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण भारत की जन मूर्तिकला पर काम हो चुका है। इधर जैन प्रतिमा विषय पर एक-दो पुस्तके भी प्रकाशित हुई है। शिलालेख, ग्रन्थ भण्डारो एवं प्रकाशित सग्रहो पर भी कुछ काम हुआ है। इस दिशा में अभी बुन्देलख के तीर्थक्षत्रो, जैन सिद्ध क्ष ेत्रो एवं खजुराहो तक ने किसी को आकृष्ट नहीं कर पाया पण्डित चन्द्रमूर्तिलेखां के आधार पर जैन इतिहास को सवारना चाहते है । उनके एक-दो लेख शोध-प्रेरक है । इन मूर्तिलेखों के संग्रह, वर्गीकरण और विश्लेषण के आधार पर अनेक जैन उपजातियो एव अज्ञात व्यक्तियो का इतिहास लिखा जा सकता है । मूर्तिकला के साथ मूर्तिकाशे व प्रतिष्ठापको का इतिहास भी जुड़ा होता है। इसे भी शोध में समाहित करने की आवश्यकना है । यद्यपि "जैन कला और स्थापत्य" के प्रकाशन से इस दिशा मे शोध सीमित हो गई है, पर पुरातत्व का विशाल क्षेत्र सदैव आकर्षण का चुम्बकीय व बना रहेगा। (च) प्राधुनिक विषय
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१६०३-०४ के बीच जैन विद्यायों मे समाहित आधु निक विषयों पर शोध को क्षमता मे काफी वृद्ध (८०%) हुई है. इन यो से सम्बन्धित व्यक्तियो गणों, राज
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तन्त्रो, प्रदेशी एवं स्थानो के इतिहास पर काफी काम हुआ है। इनमे लिच्छवि, वैशाली, भट्टारक, कुमारपाल, राजस्थान कर्नाटक, बिहार, आंध्र आदि से सम्बन्धित सामग्री विवेचित की गई है। जैन ग्रन्थों पर वर्णित राब नीतिक विचारो पर छह शोधें हुई है, आर्थिक विचारों पर चार शोधकर्ताओं ने काम किया है। जैन सिद्धांतों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमे तो दो शोधों का विषय बनी है। सामान्य एवं नारी की सामाजिक दशा के विवेचन है समाज शास्त्रीय शोध ने भी जन्म लिया है। जैन-शिक्षा और प्राचीन भूगोल पर भी एक-एक शोध हुई है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि इन शोध मे अभी दो तिहाई छोड इतिहास से सम्बन्धित हैं। इस दशक की विशेषता यह है कि अन्य विषयो मे शोध चालू हो गई है और इसमें पर्याप्त प्रगति अपेक्षित है। विभिन्न युगों के विविध साहित्य के सांस्कृतिक और सामाजिक विवेचन एवं तुल नात्मक अध्ययन हमे विकास के चरणों का मान कराते हैं और अपनी स्थिति को मूल्यांकित भी करते हैं। (श) तुलन त्मक अध्ययन
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मारणी ३ से स्पष्ट है कि १९७२-८३ जंग सिद्धान्त कथाओ एवं अन्य विद्याओ के जेनेटर - रूपी या भाषायी रूपों के तुलनात्मक अध्ययन २-५० प्रतिशत की वृद्धि हुई है। शो की यह दिशा समवायात्मक दृष्टि को विकसित करने, समकालीन एवं भिन्नकालीन विचारों के विकास व इतिहास को समझने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यह प्रत्येक युग के विकास के मूल्यांकन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में राम कथा, प्रमाणशास्त्र, योग, आचारशास्त्र, कर्मवाद, भावा विकास आदि पर अनेक अध्ययन सामने आये हैं। वे अध्ययन प्रायः किन्ही दो विशिष्ट पक्षों पर ही आधारित पाये गये है। उपयोगिता एवं महत्ता की दृष्टि से समग्रतः तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। विभिन्न धर्मों एवं देशों मे रामायण का अध्ययन एक प्रारूपिक उदाहरण है। अनेक विषय अभी इन अध्ययनों में समाहित ही नहीं हो पायें है। जैन विधाओं में वर्णित वैज्ञानिक मान्यताओं की समीक्षा इनमे से एक है। इस क्षेत्र में कुछ उपाधिनिरपेक्ष शोध एक नया आयाम दे रही है। इन अध्ययनों का समग्र