Book Title: Anekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 32
________________ परिग्रह-मोह ने पंचवतों के नाम बदलाए उपप्रचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली आचार्य श्री उमा स्वामी तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता है और जितने अशो में परिग्रह से निवृत्त होता जायगा वैसे-वैसे जैन के सभी सम्प्रदायो में सूत्र की प्रामाणिकता व महत्ता उतने-उतने अंशो मे शुद्ध होता जायगा । जीव की ऐसी आबाल-बद्ध प्रसिद्ध है। सूत्र के पाठ करने मात्र से निवृत्ति से उसकी विशेषताओं का स्वय विकास होगा। उपवास का फल मिल जाता है। ~'दशाध्याये परिच्छिन्ने इसे अहिंसक या सत्यवादी बनने के लिए कुछ ग्रहण करना तत्त्वार्थे पठिते सति । फल स्थादुपवासस्य भाषित नहीं होगा- यह निविवाद है। खेद है कि- वस्तु की मुनिपुंगवः ।।' ऐसी मर्यादा होने पर भी लोग सचय करने या पर को उक्त सूत्र ग्रन्थ जैन-दर्शन के हार्द को स्पष्ट करने पकडने की ओर दौड़ रहे है । देने वाले व्रत प्रादि दे रहे वाला है। इसके सातवें अध्याय के प्रथम सूत्र मे आचार्य हैं और लेने वाले ले रहे हैं। दोनो मे से कोई भी विरत ने व्रत शब्द की जो परिभाषा दी है वह पुण्य-पाप जैसे नही हो रहा । इस पकड़ में लोग यहा तक पहुच गये हैं सभी अंतरंग और धन-धान्यादि बहिरग परिग्रहो से निवत्त कि- उन्होंने पकड़ के नशे में व्रतो के नामो तक को होने की दिशा का बोध देती है-उसमे किसी प्रकार के विपरीत दिशा मे मोड़ दिया है। जहा किसी व्रत का नाम संकल्प-विकल्प तक को स्थान नही, जो यह कहा जा सके यह कहा जा सके हिंसावत' था वहां वे उसे 'अहिंसावत' कहने लगे हैं हसावत था वहा व उस . कि-तू अमुक को ग्रहण कर । पर, आज तो ग्रहण करने उन्हान पचव्रता क नाम हा पकड़ रूप में का ग्रहण सब को प्रस रहा है । भौतिक सुख-सम्पदा है, हिंसाऽनृतस्तेया ब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरति* व्रतम् ।'तो उसे ग्रहण करो, धर्म का कोई अग है तो उसे ग्रहण यह व्रत की परिभाषा है। इसका अर्थ है कि-हिंसा, करो: आदि गोया, छोड़ने से किसी को प्रयोजन ही नही। अनुत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरक्ति- विराम . बस्त स्थिति ऐसी है कि तु अपने मे रहने का पूर्ण लेना अर्थात् इन्हें परिवर्जन करना 'व्रत' है। आचार्य ने अधिकारी है और अपने मे रहने के लिए तुझे शुभ-अशुभ व्रत को दो श्रेणियो मे दर्शाया है-१-अणुव्रत २-महाव्रत । जैसे सभी पर-भावों-परिग्रहो से निवृत्ति आवश्यक है। अणु का अर्थ अल्परूप में और महा का अर्थ महान् रूप में प्रवृत्ति करना तो अपने को कर्मों से आच्छादित करना है। लिया गया है। हम पांचों व्रतों का नामकरण इस प्रकार इसीलिए कहा जाता है कि यह जीव जैसे-जैसे जितने- करते है१-श्री प्राचार्य उमास्वामो के मत में:- (वारण अर्थ) अणुव्रत : १. हिंसा से अणुरूप में विरति-हिंसा-+अणु+ब्रत=हिंसाणुव्रत २. अनुत से , " " =अनृत+ अणु+व्रत = अताणुव्रत ३. स्तेय से , , , =स्तेय+ अणु+व्रत = स्तेयाणुव्रत ४. अब्रह्म से , , , = अब्रह्म+अणु+व्रत = अब्रह्माणुवत ५. परिग्रह से , , , परिग्रह+अणु+व्रत-परिग्रहाणुव्रत महावत : १. हिंसा से महानरूप में विरति= हिंसा+महा+व्रत = हिंसामहाव्रत २. अनृत से , ,, -अनृत+महा+वत = अन्त महावत - . तेभ्यो विरमणं विरति'-सर्वा०७/१, "औपशमिकादिचारित्राविर्भावात् विरमणं विरतिः" -त. वा० ७/१

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