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अपभ्रश कविश्री जोइन्दु का साहित्यिक प्रवदान
Cडा आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', अलीगढ़
छठी शती' के अपभ्रंश कवयिता जोइंद्र शात, उदार सम्यक्दष्टि, मिथ्यात्वादि का वर्णन है तो द्वितीय अधिकार एवं बिशुद्ध अध्यात्मवेत्ता थे। जैन परम्पग मे दिगम्बर में मोक्ष स्वरूप, मोक्षमार्ग, अभेद रत्नत्रय, समभाव, पापआम्नाय के आप मान्य आचार्य थे और थे उच्च कोटि के पुण्य को समानता, मोक्षफल और परमसमाधि का उल्लेख आत्मिक रहस्यवादी माधक । रूढ़ि विरोधी नवोन्मेष है। शालिनी शक्तियों की सघर्षात्मक धार्मिक अभिव्यक्ति के विषय प्रतिपादन की दृष्टि से कवि काव्य में औसत्य कविश्री प्रकृष्ट निदर्शन थे। आपके काव्य में आत्मानुभति के अभिदर्शन होते है। कविश्री का 'जिन' शिव और बुद्ध का रस लहराता है। पारिभाषिक शब्दो की अध्यात्म- भी है। आपके द्वारा निम्पित परमात्मा की परिभाषा मे परक अर्थव्यञ्जना कवि काव्य की प्रमुख उपादेय विशे- केवल जैन ही नही अपितु वेदांत, मीमांसक और बौद्ध भी पता है।
ममा सके है। विभिन्न दृष्टिकोणों से आत्मा का वास्त__ अपभ्रश का 'दोहा' लारला छंद है। अपनी आध्या- विक रहस्य समझना ही कविश्री का अभीष्ट रहा है। स्मवादी विचारणा की अभिव्यञ्जना में कविश्री जोइन्दु आपने जैनेतर शब्दावलि का व्यवहार भी किया है। आप ने ही सर्वप्रथम दोहाशैली' को अपनाया है। ममन्वय की जहां पारिभाषिक तथ्यों का जिक्र करते है वहां कविश्री उदात्तभावना' से अनवाणित आपकी दो रचनाएं है- रुत हो जाते है। विषयो की निस्सारता और क्षणभंगुरता परमप्प-पयासु अर्थात् परमात्मप्रकाश और जोगमा अर्थात का उपदेश देते हुए भी कविश्री ने कही पर भी कामिनी, योगसार' दोनो ही अपभ्रश वृनियां अधिकाशन दाहा कनन और गृहस्थ जीवन के प्रति कटुता प्रःशित नही की छंद मे ही है । परमात्मप्रकाश' प्रश्नोत्तर गैलो मे आत्मा है।' कविश्री ने अनेक उपमाओ और दृष्टान्तो के माध्यम का प्रकाशन करता है। भट्ट प्रभाकर नाम के जिज्ञासु से अपनी भावाभिव्यक्ति को सरल, सुवोध और सुस्पष्ट शिष्य ने कविश्री के सम्मुख मनार के इस की ममस्या बनाया है। उपमा और दृष्टान्तो में आपके उपमान सामान्य रखी। यथा
जीवन की घटनाओ और दृश्यो से चयनित है। यथागउ ससारि वसंताह सामिय कालु अणतु ।
रा, रगिए हिय वडए देउ ण दीसइ संतु । पर मई कि पि ण पत्तु सुह दुक्खु जि पत्तु महतु॥
दप्पणि मइलए बि जिम एहुउ जाणि णिभतु ।। घउ-गइ-दुक्खहें तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ।
(परमात्म प्रकाश १।१२० चउ-गइ-दुक्ख-विणासया कहहु पसाएँ सो वि ।।
अर्थात् राग रति हृदय मे शांत देव इसी प्रकार (परमात्मप्रकाश १९-१०) नही दीखता जिस प्रकार मलिन दर्पण में प्रतिबिम्ब । यह 'परात्मप्रकाश इस समस्या का मून्दर समाधान है। निश्चय जानिए । 'परमात्मप्रकाश' मे श्लेषालकार के भी इस ग्रंथ मे मधुर, सरल आत्मा की अनभूतिया ही तरगित अभिदर्शन होते हैं। यथाहैं । यह दो अधिकारो (मर्ग) में विभक्त है। प्रथम अधि- तलि अहि रणि वरि घण-वडणु संडस्सय-लुंचोडु । कार में बहिरात्मा, अन्तगत्मा और परमात्मा का स्वरूप, लोहह लग्गिवि हुयवहहँ पिक्चु पडतउ तोडु ॥ निकल और सकन परमात्मा का स्वा , जीव के स्वशरीर
(परमात्मप्रकाश २०११४) प्रभाग की चर्चा और द्रव्य, गुण, पर्या, कर्म निश्चय, अर्थात् लोहे का सम्बन्ध पाकर अग्नि नीचे रखे हुए